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________________ इसके अध्ययन किए अन्यान्य आगमों का अध्ययन निषिद्ध माना जाता है । आचारांग विशुद्ध रूप में आध्यात्मिक धर्म का प्रतिपादक है । इसका प्रारम्भ आत्म-संज्ञान से होता है और सम्पूर्ति आत्म-साक्षात्कार से । इसमें आत्मार्पण की भावना है और सत्यानुसंधान के लिए श्रद्धा और स्वतन्त्र दृष्टि का समन्वय है । आचारांग कहता है- हिंसा का मूल है - पदार्थ के साथ 'यह मेरा है'- - इस मनोवृत्ति का जुड़ाव । वस्तुतः पदार्थ किसी का नहीं । यही सचाई है । इस सचाई को स्वीकार कर अपरिग्रह को अपनाने से सब समस्याएं स्वतः सुलझेंगी । भगवान् महावीर बढ़ती हुई आकांक्षा की मनोवृत्ति को रोकने का उपदेश देते हैं। आचारांग में इसके वाचक सूत्र भरे पड़े हैं । आचारांग में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य सम्बन्धी पांचों आचारों का वर्णन है । इसमें आत्म-कर्तृत्व और भोक्तृत्व के संवाहक अनेकों सन्दर्भ हैं । सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का पदे पदे प्रतिपादित है । सर्वांश में यह मुनि जीवन का आधारभूत आगम है । निर्युक्तिकार ने स्वयं जिज्ञासा की - 'अंगाणं कि सारो ?' और स्वयं ही उत्तर दिया- ' आयारो । ' - ( गाथा - १६ ) । ऐसे उत्कृष्ट और प्राचीनतम आगम पर भाष्य लिखकर आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने भाष्य - प्रणयन की उच्छिन्न धारा को पुनर्जीवित किया है । इस भाष्य से आचारांग के अनेकों प्रसंग सुस्पष्ट हुए हैं। बहुत से ऐसे सन्दर्भ उजागर हुए हैं जो पश्चात्कालीन चिन्तन में ज्यों के त्यों रहे हैं अथवा संक्षेप और विस्तार को प्राप्त हुए हैं । कतिपय उदाहरण देखिए २४४ (i) ५।१३५ 'ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अण्णा' - यह श्वेताश्वेतर उपनिषद् (५.१० ) में ज्यों का त्यों है - "नैष स्त्री न पुमानैष, न चैवायं नपुंसकः ।” (ii) १२८ ' अपरिणाय कम्मे खलु अयं पुरिसे, जो इमाओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ सहेति अणेगरूवाओ जोणीओ संधेइ, विरूवरूवे फासे य पडिसवेदेइ' - यह सूत्र ईशावास्योपनिषद् (१.३ ) और कठोपनिषद् ( २.३.४ ) में संक्षेप-विस्तार हुआ है "असूर्यानां ते लोका अन्धेन तपसाऽवृत्ता तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ।" X X X "इह चेदशकत् बोद्धुं प्राक्शरीरस्य विस्रतः । ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ।।” (iii) ३।१ 'सुत्ता अमुणी सया, मुणिणो सया जागरंति' - यह सूत्र गीता (२.६९ ) में विस्पष्ट हुआ है " या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागत संयमी । यस्यां जाति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रजा www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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