SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यान-द्वात्रिशिका में ध्यान का स्वरूप - समणी चैतन्यप्रज्ञा जैन दर्शन अनेकांतवादी दर्शन है। इसमें किसी भी तत्त्व अथवा क्रिया के विवेचन में एक दृष्टि का सहारा नहीं लिया जाता है अपितु अनेक कोणों से विवेच्य वस्तु अथवा क्रिया पर चिंतन किया जाता है । वस्तु स्वरूप का निश्चय ऐकान्तिक रूप से संभव नहीं। इस सचाई को मध्य नजर रखते हुए अनेकांतिक शैली का सहयोग लेना जैनाचार्यों की अविरल विशेषता रही है। 'अनुयोगद्वार' जैनागम इसका पुष्ट प्रमाण है। वहां किसी भी वस्तु के विश्लेषण में कम से कम चार अनुयोगों (मायामों) से सोचना अनिवार्यतम माना गया है और यदि विवेचक विशेषज्ञ है तो चाहे जितनी अपेक्षाओं से सत्य की उद्भावना कर सकता है जत्थ य जं जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थ वि य न जाणेज्जा चउक्कयं निक्खिवे तत्थ ।' "ध्यान-द्वात्रिंशिका" जो सिद्धसेन दिवाकर जैसे सूक्ष्म मेधा सम्पन्न अल्प शब्दों में अनल्प अर्थ को व्यक्त करने में समर्थ आचार्य के द्वारा विरचित है, उसमें ध्यान के स्वरूप का जिज्ञासा, योग्यता, साधन, क्षेत्र, भाव, विकासक्रम आदि अनेक संदर्भो में स्पष्टीकरण किया गया है। इस स्वरूप का प्रतिपादन ही प्रकृत लेखन का प्रतिपाद्य है । जिज्ञासा आवश्यकता नवीन उत्पादन की प्रेरक होती है। ऐसे ही जिज्ञासा से दिशा का निर्धारण व लक्ष्य की स्पष्टता (सिद्धि) होती है । प्रकृत "द्वात्रिंशिका" के तृतीय श्लोक में ध्यान साधक की मूलभूत जिज्ञासा को उभारा गया ___ आत्मजिज्ञासा ध्यान अथवा साधना की आधार है। कोऽहं (आत्मजिज्ञासा) से ही ध्यान का प्रारम्भ होता है और “सोऽहं" (आत्म-सिद्धि) में धान की पूर्णता । इन संदर्भ में यहां भी प्रश्न किया गया है.---'वर्तमान में मैं दण्ड १९, अंक ४ ३४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy