________________
के अनुयायी मुनिजन किन्हीं अन्य गच्छों में (सम्भवत: खरतरगच्छ, तपागच्छ अथवा अंचलगच्छ, जो चन्द्रकुल से ही उद्भूत हुए हैं) में सम्मिलित हो गये होंगे। - इस गच्छ के प्रमुख आचार्यों और ग्रन्थकारों का विवरण इस प्रकार
१. धनेश्वरसूरि-ये चन्द्रकुल के आचार्य वर्धमानसूरि (जिन्होंने चौलुक्यनरेश दुर्लभराज (वि० सं० १०६५/१०८०/ई० सन् १००९-१०२४) की राजसभा में चैत्वासियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया था) के प्रशिष्य तथा जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि के शिष्य थे। आचार्य पद की प्राप्ति के पूर्व इनका नाम जिनभद्रगणि था। जैसाकि इस निबन्ध के प्रारम्भ में ही कहा जा चुका है इन्होंने वि० सं० १०९५/ई० सन् १०३९ में चन्द्रावती नगरी में सुरसुन्दरीचरित की रचना की।" यह कृति प्राकृत भाषा में रची गयी है । इसकी प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि साध्वी कल्याणमति के आदेश पर उन्होंने इसकी। इनके रचना की द्वारा रचित किन्हीं अन्य कृतियों का उल्लेख नहीं मिलता।
२. जिनचन्द्रसूरि-ये भी पूर्वोक्त आचार्य वर्धमानसूरि के प्रशिष्य और जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि के शिष्य थे। नवाङ्गवृत्तिकार अभयदेवसूरि इनके गुरु-भ्राता थे जिनके अनुरोध पर इन्होंने वि० सं० ११२५/ ईस्वी सन् १०६९ में संवेगरंगशाला की रचना की।" ग्रन्थ की प्रशस्ति में इन्होंने अपने गुरु जिनेश्वर एवं बुद्धिसागरसूरि की प्रशंसा की है।
३. अभयदेवसूरि---जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है ये चन्द्रकुल के आचार्य जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि के शिष्य थे। इन्होंने जैन आगम ग्रंथों में सर्वप्रधान ११ अंग सूत्रों में से ९ अंग सूत्रों पर संस्कृत भाषा में टीकायें लिखीं। इन्हें श्वेताम्बर परम्परा के प्रायः सभी गच्छों के न केवल समकालीन विद्वानों ने बल्कि परिवर्ती काल के विद्वानों ने भी बड़ी श्रद्धा के साथ प्रमाणभूत एवं तथ्यवादी आचार्य के रूप में स्वीकृत किया है और इनके वचनों को सदैव आप्त वाक्य की कोटि में रखा है। जिन चैत्यवासी मुनिजनों का जिनेश्वरसूरि ने प्रबल विरोध किया था, उन्हीं में से एक पक्ष के अग्रगण्य एवं राज्यमान्य और बहुश्रुत द्रोणाचार्य (निवृत्तिकुलीन) ने अपनी प्रौढ़ पण्डित परिषद के साथ अभयदेवसूरि द्रारा रची गयी वृत्तियों का बड़े ही सौहार्द के साथ आद्योपरांत संशोधन करते हुए इनके प्रति सौजन्य प्रदर्शित किया है ।३२ . अभयदेवसूरि ने वि० सं० १२२०/ ई० सन् ११६४ में स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग और ज्ञातृधर्मकथा की वृत्तियां अणहिलपुरपत्तन में समाप्त की तथा
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org