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चन्द्रगच्छीय सोमंतिलकसूरि उपाध्याय हंसभुवनगणि
कीर्तिभुवन ( वि० सं० १४१३ / ईस्वी सन् १३५० में युग प्रधानयंत्र के प्रतिलिपिकार)
६. प्रशमरतिप्रकरणवृत्ति की प्रतिलिपि प्रशस्ति—संघपीपाड़ा भंडार, पाटन में संरक्षित और वि० सं० १४९८ / ईस्वी सन् १४४१ में लिखी गयी उक्त कृति की प्रतिलिपि प्रशस्ति" में चन्द्रगच्छीय मुनिजनों की एक छोटी गुर्वावली मिलती है, जो निम्नानुसार है :
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चन्द्रगच्छीय पूर्णचन्द्रसूरि
महंससूरि सारगणि
म रुगण (वि.सं. १४९८ / ई० सन् १४४१ में प्रशमरतिप्रकरण वृत्ति के प्रतिलिपिकार)
उक्त प्रशस्ति से यह भी पता चलता है कि प्रतिलिपिकार ने उक्त ग्रन्थ के त्रुटित अंश को भी पूर्ण किया था ।
७. जीवाभिगमसूत्र की प्रतिलिपि प्रशस्ति - चन्द्रगच्छीय वाचनाचार्य संयमहंस ने वि० सं० १६०५ / ई० सन् १५४९ में उक्त ग्रन्थ की प्रतिलिपि की, जिसकी प्रशस्ति" में उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा निम्नानुसार दी है :
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वादी चक्रचूड़ामणि जिनप्रभसूरि
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जिनतिलकसूरि राजहंस उपाध्याय
वाचनाचार्य संयमहंस ( वि० सं० १६०५ / ई० सन् १५४९ में जीवाभिगमसूत्र के प्रतिलिपि - कार)
उक्त सभी साहित्यिक साक्ष्यों में उल्लिखित चन्द्रकुल (चन्द्रगच्छ ) की छोटी-बड़ी गुर्वावलियों से अनेक मुनिजनों के नामों का पता चलता है, परन्तु इनमें से दो-तीन गुर्वावलियों को छोड़कर अन्य सभी
गुर्वावलियों के
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तुलसी प्रज्ञाः
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