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________________ ४. आत्मा और अहिंसा-साठ अभिधानों में से कुछ ऐसे भी अभिधान प्रयुक्त हैं जो अहिंसा के आत्मा के साथ साक्षात्सम्बन्ध को उद्घाटित करते हैं । वे नाम हैं- विमलपभासो, पुट्ठी, विसुद्धी, पवित्ता, निम्मलयरति, सिद्धावासो, उस्सओ, सिवं, विभूती आदि । अहिंसा के कारण आत्मा के कोधादि राग के निकल जाने से आत्मा शुद्ध हो जाता है इसलिए अहिंसा आत्मा को शुद्ध करने वाली विमल प्रकाशभूता है । पुण्य वृद्धि के कारण आत्मा को पुष्ट करती है इसलिए वह पुष्टि है । आत्मा को विशुद्ध करती है इसलिए विशुद्धि है । ५. कारणभूता अहिंसा मुक्ति, बोधि, धृति, समृद्धि, रिद्धि, प्रमोद, विभूति एवं शिव (मङ्गल) आदि का कारण है । अर्थात् अहिंसा के पालन से ही पूर्वोक्त तत्त्वों की प्राप्ति होती है । अहिंसा पालक व्यक्ति जन्म-जन्मांतर के बन्धन से छूट जाता है इसलिए वह विमुक्ति, एवं बोधि को प्राप्त करवाती है । बोधि ( बोही), अहिंसा के पालन से चित्त की दृढ़ता रूप धृति की उत्पत्ति होती है इसलिए इसे धिती ( धृति) कहा गया है । इससे शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक आनन्द तथा रत्नत्रय की समृद्धि होती है इसलिए अहिंसा को समृद्धि कहा गया । ६. अहिंसा का लक्ष्य - प्रश्न व्याकरण में अहिंसा के कतिपय संविधान ऐसे हैं जिनके अनुशीलन से अहिंसा के लक्ष्य या अहिंसा पालन से होने वाले लाभ पर प्रकाश पड़ता है । समृद्धि, बोधि, विभूति, अनाश्रव, संवर, गुप्ति आदि विशेषण उल्लेख्य हैं । अहिंसा कर्म प्रवाह को रोकती है इसलिए अनाश्रव, समग्र ऐश्वर्य, धन, धर्म, यश ज्ञान वैराग्य रूप बाह्य एवं केवलज्ञानानन्त सुखरूप अभ्यन्तर ऐश्वर्य की दात्री है इसलिए उसे विभूति कहा गया है । मोक्ष मार्ग में प्रतिष्ठित करने वाली है इसलिए 'प्रतिष्ठा' है । ७. अहिंसा के आठ उपमान- - प्रश्न व्याकरणकार ने अहिंसा के सर्वजीवकल्याण करी स्वभाव पर प्रकाश डालने के लिए आठ उपमानों का प्रयोग किया है । वह अमृतभूता, परब्रह्म स्वरूपा, सर्व व्यापिनी, क्षेमवती, क्षमामया, मंगलरूपा एवं सर्वभूतकल्याणकारिणी है । जीव जब चतुर्दिक् कष्टों से त्रस्त हो जाता है तब अहिंसा ही शरणदात्री बनती है इसलिए अहिंसा को 'भीयाणं विव सरणं कहा गया है । अहिंसा अध्यात्म साधना का आधारभूत है । अहिंसा आधार है तो अध्यात्म आधेय । पुष्ट आधार के बिना आधेय की कल्पना नहीं की जा सकती है । जैसे पक्षियों के गमनागमन में आकाश आधारभूत होता है उसी प्रकार आध्यात्मिक उड़ान भरने के लिए साधक अहिंसा का आधार ग्रहण करते हैं । इसलिए 'पक्खीणं पिव गमणं रूप उपमान का विनियोग किया गया है । खण्ड १९, अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only ३१५ www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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