SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसमें यत्र-तत्र सूक्तियों का प्रयोग मिलता है । इसका छंदोविधान महाकाव्यीय परम्परा के अनुकूल है। इसमें २९ प्रकार के छन्दों का प्रयोग मिलता है जिनमें उपजाति की संख्या सर्वाधिक है। कुमारपाल भूपालचरित महाकाव्य ___ इस महाकाव्य" में ऐतिहासिक एवं पौराणिक दोनों शैलियों का सम्मिश्रण प्राप्त होता है। परन्तु इसका ऐतिह्य पक्ष प्रधान है, इसीलिए इसे ऐतिहासिक महाकाव्यों की श्रेणी में रखा जा सकता है । इसके प्रारम्भिक सर्ग में नायक की वंश-परम्परा का वर्णन है और अन्तिम सर्ग में कुमारपाल के पूर्व भवों का विवरण दिया गया है। इसमें स्थान-स्थान पर जैन धर्म के उपदेश भी विद्यमान हैं । प्रस्तुत महाकाव्य के रचयिता कृष्णर्षिगच्छीय जयसिंहसूरि हैं। इसकी रचना वि. सं. १४२२ में हुई थी। इसमें १० सर्ग और कुल ६०५३ श्लोक हैं। इस महाकाव्य के प्रथम सर्ग में मूलराज से लेकर अजयपाल तक गुजरात के चौलुक्य नरेशों का क्रमिक इतिहास वर्णित है। इसमें प्रदत्त मूलराज की उत्पत्ति का विवरण शिलालेखीय प्रमाणों द्वारा प्रामाणिक सिद्ध होता है । ऐतिहासिक दृष्टि से यह सर्ग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इस महाकाव्य में सिद्धराज जयसिंह को शैवमतावलम्बी तथा सन्तानरहित शासक कहा गया है। कुमारपाल को उत्तराधिकार न देने के लिए उसने विविध प्रकार के षड्यन्त्र रचे थे। कुमारपाल भी प्रारम्भ में शैव धर्म का अनुयायी था और बाद में हेमचन्द्राचार्य के प्रभाव में आकर उसने जैन धर्म स्वीकार किया। - जयसिंह की मृत्यु के पश्चात् शासन -सत्ता कुमारपाल को प्राप्त हुई। कुमारपाल का महामात्य उदयन था और वाग्भट उसका अमात्य था । कुमारपाल अत्यन्त पराक्रमी शासक थ । उसने मेड़ता और पल्लीकोट के राजाओं को पराजित किया और जाबालपुर, कुरु तथा मालव के राजाओं को अपने प्रभाव में लिया। उसने कोंकण नरेश मल्लिकार्जुन को पराजित किया और इस विजय के उपलक्ष में आम्रभट को 'राजपितामह' का विरुद प्रदान किया। उसने सोमनाथ का जीर्णोद्धार कराया और संघ सहित वहां की यात्रा की जिसमें हेमचन्द्रसूरि भी साथ में थे । आचार्य हेमचन्द्र ने भृगुकच्छ में आम्रभट द्वारा बनवाये गये मुनिसुव्रतनाथ के चैत्य में सं० १२११ में जिन-प्रतिमा की प्रतिष्ठा की। वि. सं. १२२९ में हेमचन्द्र की मृत्यु हो गयी । इसके पश्चात् वि. सं. १२३० में कुमारपाल का भी अन्त हो गया । तदन्तर शासन-सत्ता की वागडोर अजयपाल ने संभाली। इस प्रकार यह महाकाव्य विविध ऐतिह्य तथ्यों से परिपूर्ण है । खण्ड १९, अंक ४ २८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy