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जैन-संस्कृत-वाङ्मय के ऐतिहासिक महाकाव्य
- केशवप्रसाद गुप्त
ऐतिहासिक महाकाव्यों से हमारा तात्पर्य महाकाव्य सम्मत लक्षणों से परिपूर्ण ऐसे काव्यों से है, जो महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं को समुद्घाटित करते हैं अथवा एक या अनेक ऐतिहासिक महापुरुषों या नरेशों के जीवन-चरित अथवा उनके इतिहास-प्रसिद्ध कृत्यों का काव्यात्मक ढंग से विवेचन करते हैं। संस्कृत-वाङमय के महाकाव्यों में इस प्रकार की ऐतिहासिकता का सर्वप्रथम दर्शन पद्मगुप्त विरचित 'नवसाहसाङ्कचरित (१००५ ई०) में होता है । परमारों के इतिहास को जानने के लिए यह महाकाव्य विशेष उपयोगी है। दूसरा ऐतिहासिक महाकाव्य जिसमें इतिहास के घटनाचक्र पर विशेष बल दिया गया है, कश्मीरी कवि विल्हणकृत 'विक्रमाङ्कदेवचरित' है जो कल्याणी के चालुक्य नरेशों के इतिहास से सम्बन्धित है। इसी प्रकार कल्हणकृत 'राजतङ्गिणी' (११४८-११५१ ई०) में पौराणिक काल से लेकर बारहवीं शताब्दी के मध्यकाल तक कश्मीर के प्रत्येक राजा के शासनकाल की घटनाओं का यथाक्रम विवरण दिया गया है। इसी क्रम में संध्याकरनान्दिन के 'रामपालचरित', जयानक कवि के 'पृथ्वीराजविजय' और जल्हण के 'सोमपाल विजय' महाकाव्य के नाम भी उल्लेखनीय हैं क्योंकि इनमें ऐतिहासिक घटनाओं को यथावसर समुचित स्थान दिया गया है।
संस्कृत के ऐतिहासिक महाकाव्यों की इसी विकासशील परम्परा में जैनाचार्यों एवं कवियों का योगदान भी अविस्मरणीय है। उन्होंने ऐतिहासिक शैली में काव्य-लेखन-परम्परा का सहर्ष स्वागत किया। इसके शुभारम्भ का श्रेय सर्वप्रथम सुप्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचन्द्रसूरि (१०८८-११७२ ई०) को प्राप्त है। तदनन्तर सोमेश्वर, अरिसिंह, बालचन्द्रसूरि, जयसिंहसूरि, नयचन्द्रसूरि चरित्रसुन्दरगणि प्रभृति विद्वान् कवियों ने ऐतिहासिक महाकाव्यों का प्रणयन कर इस परम्परा की श्रीवृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान किया।
प्रस्तुत अध्ययन में केवल उन्हीं महाकाव्यों का निर्वचन करना अभीष्ट है जिनमें ऐतिहासिकता के साथ-साथ महाकाव्य सम्बन्धी लक्षण विद्यमान हैं। इसीलिए कुछ ऐतिहासिक काव्यों यथा 'जगडूचरित" (सर्वा
खंड १९, अंक ४
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