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निद्राभङ्गो नयनस्फारः
कोऽपि न मणिपालस्या सारः । स्फुटितो द्रुतमाशाकासारः,
परितोऽसुख जीवन संचारः ।। (घ) स्वप्नदर्शन के बाद प्रत्यक्ष जगत् में मणिपाल को न पाकर उसका मोह-भंग हो जाता है। वह संसार की मोहरूपता से निर्वेद को प्राप्त होती है--
हा स्नेहेन भ्रान्ताभ्रान्ति
श्रितवत्यहमह मोहविलसितम् । जडतां सुधियोप्यश्रुवतेतः,
कास्तु जडानां गतिस्तदानीम् ॥ (ङ) संसार से संविग्न मन वाली होकर वह नगर की ओर लौटती है, रास्ते में एक मुनि (रत्नपाल) का दर्शन होता है । उपदेश सुनकर भव्यत्व को प्राप्त करती है। व्याप्ति-प्रेम की कामना करती है----
कुसुमसुरभिसब्रह्मास्नेहः
कादाचित्कत्वाद् व्यभिचारी। अस्योदाहरणं स्ताद् व्याप्ति,
धूमो नो ज्वलनं व्यभिचरति ।" (च) उसका अन्तिम दर्शन अखण्ड कुमारी के रूप में होता है । राजर्षि के पास दीक्षा स्वीकार कर रत्नवती साध्वी बन गई। खोजने चली थी मरणशील पति को पागई अनन्त-स्वामी को। यह दृश्य दर्शनीय है---.
स्वीकृत्य दीक्षां महिपर्षि पार्वे, साध्वी समेता मुनिता धनाढ्या । तेनाऽध्वानासौ विजहार येन,
पति पुरान्वेष्टमथो जगाम ॥२
साध्वी रत्नवती के लिए अब सब कुछ भव्य हो गया । पूर्वकृत्यों की आलोचना कर वह साध्वी साधुत्व में अधिक रक्त हो गई।
३. मंत्री-रत्नपालचरित में मन्त्री-चरित्र का सुन्दर बिम्बन हुआ है । प्रथमतः तृतीयसर्ग में राजा की पर्युपासना में संलग्न दिखाई पड़ता है और अन्त में मुनि दीक्षा ग्रहण करता है। मंत्री राजा का अनुगामी होता है । वह भी अपने स्वामी से तत्सदृश साधुता की याचना करता है--
यमिवरास्भ्यनुगस्तव शाश्वतम्, किमु न तन्मुनितामहमाद्रिये । दिनकरानुगतो दिवसो विज्ञां दिनकरस्य न कि श्रयते स्वयम् ॥"
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तुलसी प्रज्ञा
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