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________________ स्वर-गाय । ३. गांधार स्वर-बकरी । ४. मध्यम स्वर-क्रौंच । ५. पंचम स्वर-कोयल । धैवत स्वर---अश्व । ७. निषाद स्वर-कुंजर । अजीवनिश्रित सप्त स्वर इस प्रकार हैं-१. मृदङ्ग से षड्ज स्वर निकलता है । २. गोमुखी--नरसिंघा नामक बाजे से ऋषभ स्वर निकलता है। ३. शंख से गांधार स्वर निकलता है । ४. झल्लरी-झांझ से मध्य स्वर निकलता है। ५. चार चरणों पर प्रतिष्ठित गोधिका से पंचम स्वर निकलता है । ६. ढोल से धैवत स्वर निकलता है । ७. महाभेरी से निषाद स्वर निकलता है। संगीत शिक्षा का सबसे बड़ा रहस्य यह है कि स्वरों को ठीक और सही ढंग से गाया जाये । स्वर हो सकता है निसर्ग से प्राप्त हो गया हो लेकिन उसकी रचना निर्मित है । यह रचना करने की पद्धति ही राग की कल्पना है। स्वरों की विशिष्ट रचना तथा आकृति राग है राग में प्रयुक्त स्वर एक तरह से सजीव बनते हैं। स्थानांग में सप्त स्वरों के ग्राम मूच्र्छना आदि का भी स्पष्ट उल्लेख मिलता है। ग्राम-यह समूहवाची शब्द है । संवादी स्वरों का वह समूह ग्राम है जिसमें श्रुतियां व्यवस्थित रूप में विद्यमान हों और जो मूर्छना, तान, वर्ण, क्रम, अलंकार इत्यादि का आश्रय हो।५ ग्राम तीन हैं-षड्जग्राम मध्यम ग्राम और गान्धार ग्राम ।" षड्ज ग्राम-इसमें षड्ज स्वर चतुःश्रुति ऋषभ त्रिश्रुति गांधार द्विश्रुति, मध्यम चतुःश्रुति, पंचम चतुःश्रुति, धैवत त्रिश्रुति और निषाद द्विश्रुति होता है। सात स्वरों की २२ श्रुतियां हैं---षड्ज मध्यम और पंचम की चार-चार निषाद और गांधार की दो-दो और ऋषभ और धैवत की तीन-तीन श्रुतियां हैं (श्रुति-स्वरों के अतिरिक्त छोटी-छोटी सुरीली ध्वनिया)। वीर रौद्र अद्भुत रसों में नाटक की संधि में इसका विनियोग है । इस राग का देवता बृहस्पति है और वर्षाऋतु में, दिन के प्रथम प्रहर में, यह गेय है।" यह शुद्ध राग है। ____ मध्यम प्राम-इसमें षड्ज स्वर चतुःश्रुति, ऋषभ त्रिश्रुति, गांधार द्विश्रुति, मध्यम चतुःश्रुति, पंचम त्रिश्रुति, धैवत चतुःश्रुति और निषाद द्विश्रुति होता है। मध्यम ग्राम का विनियोग हास्य एवं शृंगार में है। यह राग ग्रीष्म ऋतु के प्रथम प्रहर में गाया जाता है महर्षि भरत ने सात शुद्ध रागों में इसे गिना है। ___गान्धार ग्राम-इसमें षड्ज स्वर त्रिश्रुति, ऋषभ द्विश्रुति, गांधार चतुःश्रुति, मध्यम-पंचम और धैवत त्रि-त्रिश्रुति और निषाद चतुःश्रुति होता है। नारद की सम्मति के अनुसार गान्धार ग्राम के स्वर बहुत टेढ़े-मेढ़े हैं खण्ड १९, अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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