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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में निःशस्त्रीकरण और
विश्वशांति
0 डा० बच्छराज दूगड़
१. प्रस्तावना
आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व युद्ध का वह स्वरूप नहीं था जो आज है । राजा अपने राज्य के विस्तार के लिए भाड़े की सेना लेकर लड़ता था। राष्ट्रवाद का उदय अभी नहीं हुआ था। भारतवर्ष में अनेक छोटे-छोटे राज्य थे जो प्रायः दो कारणों से परस्पर लड़ते थे-भूमि और स्त्री । युद्ध के दुष्परिणामों से लोग सामान्यतः परिचित थे, जैसा कि गीता में अर्जुन के वक्तव्य से स्पष्ट होता है। अपने अधिकार के लिए लड़ना क्षत्रिय धर्म समझा जाता था। युद्धों में शस्त्रधारी, शस्त्रधारी पर ही आक्रमण करता था । निःशस्त्र नागरिक युद्ध की विभीषिका के शिकार नहीं होते थे। पंजीवाद का उदय अभी नहीं हुआ था। उस समय व्यापारी और श्रेष्ठी थे जो निर्धन लोगों को दास-दासियों की भांति खरीदा-बेचा करते थे।
ऐसे समय में महावीर और बुद्ध दो ऐसे महापुरुष हुए, जिन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर अहिंसा और अपरिग्रह की बात रखी। यह मात्र संयोग ही नहीं था, ये दोनों ही क्षत्रिय राजकुमार थे, जिनका पैतृक व्यवसाय युद्ध करना था। शेष २३ जैन तीर्थंकर भी राजघरानों से ही संबद्ध थे । उपनिषदों में भी ब्रह्मविद्या का संबंध क्षत्रियों से माना गया है । इसका अर्थ यह है कि अहिंसा और आत्मविद्या की चर्चा उन घरानों में पनपी जिनका युद्ध करना पैतृक व्यवसाय समझा जाता था। स्वाभाविक भी है-युद्ध की विभीषिका से वे लोग अधिक परिचित थे जो स्वयं युद्ध से सीधे जुड़े थे। २. नि:शस्त्रीकरण का अर्थ
अमेरिकन इन्स्टीट्यूट ऑफ डिफेन्स एनालिसेस ने निःशस्त्रीकरण की परिभाषा देते हुए कहा है -..."कोई भी एक योजना, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निःशस्त्रीकरण के किसी भी एक पहलू जैसे संख्या, प्रकार, शस्त्रों की प्रयोजन प्रणाली, उसका नियन्त्रण, उसकी सहायता के लिए पूरक यंत्रों का
खण्ड १९, अंक २
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