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"अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षांतिरार्जवम् । आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥ '
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वे उसी मानव को सच्चा मानव मानते हैं जिसमें अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति, अपैशुनता ( चुगलखोरी का अभाव), जीवों के प्रति दया अलोलुपता, मृदुता, लज्जा और अचंचलता का भाव विद्यमान हो"अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुत्वं मार्दवं हीरचापलम् ||"""
इस तरह मानवों के उच्च गुणों का उल्लेख करते हुए गीता में अहिंसा रूप भाव को प्रमुख माना गया है ।
महर्षि पतञ्जलि ने भी अष्टांग योग का वर्णन करते हुए प्रथम अंग यम के अन्तर्गत सर्वप्रथम और प्रमुखता जिसका उल्लेख किया है, वह अहिंसा ही है । उनके अनुसार अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यम के अन्तर्गत हैं
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"अहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमा: । '
योगदर्शन में इन्हें महाव्रत भी माना गया है । न केवल योगदर्शन इन पांच भावों को महाव्रत स्वीकार करता है, अपितु जैन धर्म और दर्शन भी इन्हें महाव्रत के रूप में स्वीकार करता है ।
शाकाहार भोजन के स्वीकरण और मांसाहार भोजन के वर्जन के मूल में यही अहिंसा भाव विद्यमान है । निर्विवाद रूप से हम कह सकते हैं कि भारतीय शास्त्रीय वाङ्मय अहिंसा को स्वीकार करते हुए मांस भक्षण का निषेध करते हैं और शाकाहारी बनने का संदेश प्रदान करते हैं ।
संदर्भ
१. वैद्यकीय सुभाषित साहित्यम् - - १२.२८, श्री भास्कर गोविन्द घाणेकर, चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, संवत् २०३३
२. मनुस्मृति -- ५.५६, चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, वाराणसी, १९८७ ३. कामसूत्र - २.९.४२, चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, १९८२ ४. वैद्यकीय सुभाषित साहित्यम - १२.२७
५. चाणक्य सूत्र – ५६२, कौटिलीय अर्थशास्त्र ( चाणक्य सूत्र सहित ), पंडित पुस्तकालय, काशी, १९६४
६. वैद्यकाय सुभाषित साहित्यम् - १७.८
७. षड्दर्शनसमुच्चय-- पृ० ४०२, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी, वीर नि० संवत् २४९६
खण्ड १९, अंक २
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