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परमात्मप्रकाश
कुन्दकुन्द ग्रन्थ प्रथम अधिकार के दोहा
मोक्षपाहुड गाथा संख्या संख्या ७६, ७७, ८६, १२१, १२२, १२३, १४, १५, २४,४,५,६,७, १२४ तथा द्वितीय अधिकार के
, ३७, ६६ से ६९, दोहा संख्या १३, ८१, १७६, १७५ आदि। ५१ आदि ।
इनमें से उदाहरण के लिए एक समानता दृष्टव्य हैमो. पा.---जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं ।
तं चारित्तं भागयं परिहारो पुण्णपावाणं ।।३७।। प. प्र.-पेच्छई जाणइ अणुचरइ अप्पिं अप्पउजोजि ।
दसणु णाणु चरित्तु जिउ मोक्खंह कारण सोगि ॥१३॥
इसी प्रकार प्रवचनसार की गाथा ७७ में कहा गया है कि जो जीव पुण्य और पाप दोनों को समान नहीं मानता, वह जीव मोह से मोहित हुआ बहुत काल तक दुःख सहता हुआ संसार में भटकता है। इसी अर्थ को परमात्मप्रकाश के निम्न दोहे में व्यक्त किया गया है
जो णवि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पाउवि दोइ । सो चिरु दुक्ख सहंतु जिय मोहिं हिंडइ लोइ ॥२.५५।।
समयसार की गाथा संख्या २०१ में कहा गया है कि जिस जीव के रागादि का परमाणु मात्र भी विद्यमान है, वह समस्त आगमों का धारी होकर भी आत्मा को नहीं जानता है। इसी बात का समर्थन जोइन्दु ने परमात्म प्रकाश में लगभग उन्हीं शब्दों में किया है---
जो अणुभेतु वि राउ मणि जाम ण मिल्ल इ एत्थु । सो णवि मुच्चइ ताम जिय जाणंतुवि परमत्थु ।।२.८१॥
जो इन्दु के योगसार और कुन्दकुन्द के समयसार में कई समान गाथाएं एवं विचार उपलब्ध हैं। निम्न विषयों की समानता द्रष्टव्य हैयोगसार
समयसार १. शुद्धात्मा का लक्षण
गाथा ६,७, ३८ एवं ७३ २. प्रत्याख्यान का लक्षण
गाथा ३४,३५ ३. अज्ञानी एवं ज्ञानी का लक्षण
गाथा १९-२२ ४. आत्मा का ज्ञापक स्वरूप
गाथा ७६-७८ ५. संवर, निर्जरा, मोक्ष के उपाय
गाथा १८७-१८९ ६. रागादिभाव ही बंधक
गाथा १५०, १६७ ७. ध्यान से ही मोक्ष-प्राप्ति
गाथा २०६, ४१२ ८. निश्चय और व्यवहार दृष्टि
गाथा २७६, १५५, २७७ इस दोनों ग्रन्थों में अर्थ और भाव की समानता के साथ शब्दों के प्रयोग में भी समानता है । यथा--
खण्ड १९, अंक २
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