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और व्याकरणोन्तर प्राकृत के बीच भेद रेखाएं हैं और इस क्षेत्र में संशोधन की महती आवश्यकता है ।"
___यही तथ्य पू० मुनिश्री पुण्यविजयजी के शब्दों में : "आगमों की भाषा खिचड़ी बन गई है उसमें से प्राचीन मूल भाषा को खोज निकालना दुष्कर हो गया है।" आगमों की भाषा के संशोधन कार्य के अनुभव के आधार पर हम भी इस मन्तव्य से पूर्णतः सहमत हैं और युवाचार्य द्वारा सुझाये गये उपायों की अनुशंसा और अनुमोदन करते हैं। मूल स्वरूप को प्रस्थापित करना कोई घुसपैठ नहीं है वह तो जो घुसपैठ हो गयी है उसे निष्कासित करने की दिशा में एक सम्यक् और सच्चा प्रयत्न है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार नई परम्पराएं अपनी उपयोगिता के कारण जन्म लेती हैं और परिस्थिति बदल जाने पर उनकी उपयोगिता मिट जाती है। अपनी मिथ्या धारणाओं के बल पर उसकी रट लगाना या लकीर के फकीर बने रहना सर्वत्र और सदा लाभदायी नहीं होता है, उससे तो उल्टो नुकसान होता है । उसका (किसी भी परम्परा का) मूल्यांकन नये आलोक में होना चाहिए, स्याद्वाद और अनेकान्तवाद हमें यही सिखाता-सुझाता है ।*
___ आदर्श विहीन नये पाठों की घुसपैठ करना, मूल पाठों में फेर बदल या कांट-छांट करना, पाश्चात्य शैली का सम्पादन में अनुकरण करना, सामान्य जन की आस्था को हिलाना, पुरानी दृष्टि की उपयुक्तता की रट लगाना, एक व्यंजन मात्र को बदलना आशांतना और दोष मानना इत्यादि इन सब मिथ्या धारणाओं, मान्यताओं और आक्षेपों का निरसन इस पुस्तिका से स्वतः ही हो जाता है यह कहने की आवश्यकता नहीं है।
अन्तमें यही कहने की इच्छा होती है कि आगमों के सम्पादकों द्वारा यह पुस्तिका अवश्य पढ़ी जानी चाहिए ।
-के० आर० चन्द्र २. मेरा जीवन : मेरा युग; लेखक-राजेन्द्रप्रसाद जैन; प्रकाशक साहित्य कला संगम, २०२, लाजपतनगर, हिसार-१२५००१; प्रथमसंस्करण-१९९३; मूल्य-५०/= |
मेरा जीवन : मेरा युग श्री राजेन्द्र प्रसाद जैन की आत्मकथा है जो उन्होंने 'आत्मनिवेदन' के अनुसार जैन कवि बनारसीदास (सन् १६३८-४१) के "अर्द्धकथानक'' और श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की "तपती पगडंडियों की पदयात्रा' से प्रभावित होकर लिखी बताई है; किन्तु साहित्यिक विधा में इसे आत्मकथा कहना कठिन लगता है क्योंकि पारिवारिक संदर्भ,
*कल्पसूत्र, प्रस्तावना, साराभाई मणिकलाल नवाब, अहमदाबाद, १९९२ (पृ० ३ से ५)
तुलसी प्रज्ञा
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