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विद्वानों ने जिणवाणो को 'मथ्यादर्शनों का समूह कहा' है। उपाध्याय यशोविजयजी की दृष्टि में "सच्चा अनेकांतवादी वही होगा जो किसी दर्शन से विद्वेष नहीं करता । वह सम्पूर्ण नयरूप दर्शनों को वात्सल्यभाव से देखता है जैसे पिता अपने पुत्रों को । अध्यात्म सार के अनुसार
यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव । तस्यानेकान्तवादस्य पव न्यूनाधिक शेमुषी ।। तेन स्याद्वादमातब्य सर्वदर्शनतुल्यतां ।
मोसोद्देशाविशेषेण य : पश्यन्ति स शास्त्रयित् ॥२२ वस्तुतः किसी में विरोध नहीं है । सभी का गन्तव्य एक ही है । राष्ट्रकवि बच्चन के अनुसार
'घर से निकला है मदिरालय जाने को पीनेवाला। किस पथ से जाऊं असमन्जस में है वह भोला-भाला ॥ अलग-अलग सब पथ बतलाते, पर यह मैं बतलाता हूं।
एक राह तू पकड़ चला जा मिल जाएगी मधुशाला ॥२३ स्याद्वाद का यही प्राण है। प्रत्येक दार्शनिक अवस्था एवं काल भेद से सत्य का अंश मात्र ग्रहण करता है । आचार्य हरिभद्र ने कहा है-----
श्रोतव्य ः सौगतो धर्मः कर्तव्पः पुनराहतः ।
वैदिको व्यवहर्तव्यो ध्यातव्यः परमः शिवः ॥ अर्थात् वैदिक व्यवहार-प्रधान, सोगत (बौद्ध) श्रवणप्रधान और आर्हत कर्तव्यप्रधान है। सबका ध्यातव्य परमशिव हैं । आचार्य पुष्पदन्त ने कहा है कि मनुष्यों का एक मात्र प्राप्तव्य मोक्ष ही होता है जैसे सम्पूर्ण नदियां समुद्र को ही प्राप्त होती है । नृणामेको गम्यस्त्वसि पयसामर्णव इव ॥ आज के सन्दर्भ में स्थाद्वाद
स्याद्वाद जैन दर्शन का प्राण तो है ही आज के अराजक विश्व के लिए संजीवनी के समान भी है। इसी को आधार मान कर जैन दर्शन या भारतीय प्रज्ञा के धनी आचार्य लोग संसार के झगड़ों को निपटा सकते हैं । स्याद्वाद के मूर्त-विग्रह के रूप में आचार्य श्री तुलसी को आज सम्पूर्ण संसार जान रहा है। उन्होंने संसार की समस्याओं को निपटाने का प्रयास किया है। साथ ही सभी धर्मों के प्रति समभाव रखने की प्रेरणा भी दी है।
दुनिया के सभी झगड़ों का कारण एकान्तवाद है । क्रोधावस्था में हमारी दृष्टि क्रोध-पात्र के दुर्गुणों या दोषों के ऊपर जाती है । उसके गुणों को नहीं देखती; इसलिए विरोध बढ़ता है जबकि संसार में एक भी ऐसा प्राणी नहीं है जो सर्वथा गुणहीन हो। यदि दोष के बदले उसके गुणों पर ध्यान दिया जाए तो आसन्न विवाद सद्यः समाप्त हो सकता है। इसी प्रकार प्रिय वस्तु या पात्र के केवल गुण ही गुण दिखाई देते हैं । उसके दोष नहीं दीखते ।
इस प्रकार आग्रहवादिता और अहंवृत्ति से उपजी और अनसुलझी उपरोक्त
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तुलसी प्रज्ञा