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प्रतिष्ठा की थी। यह गोष्ठमाहिल आचार्य दिशपुर (मंदसौर) के थे और वहीं के आचार्य आर्यरक्षित के प्रमुख शिष्य थे जो संघ से विलग अबद्धियों के आचार्य बनें और निह्नव कहे गये।
उक्त संशोधित मूलपाठ की पहली और दूसरी पंक्तियों में प्रस्तावित पाठ 'परिनिवते' और 'वइये' के स्थान पर कुछ भिन्न प्रकार से भी अनुमानित किये जा सकते हैं; विशेषतः 'वइये' के स्थान पर 'अभिसिक्तेन' जैसा पाठ हो सकता है; किन्तु तीसरी और चौथी पंक्तियों के मूल पाठ प्रायः शुद्ध बन गए हैं। दोनों शिलाफलकों में साम्य है। सिलावट भी एक है। अक्षरविन्यास, माप-जोख तथा अक्षर-क्षरण में भी कोई विशेष अन्तर नहीं दीख पडता। _ऐतिहासिक दृष्टि से महावीर-
निर्वाण बाद हुए संघ-विभेदों में ५८४ वां वर्ष “माहिल' उल्लेख होने से इतिहास एवं परम्परा-सम्मत हो गया है। आचार्य गोष्ठमाहिल, कायसालि थे-यह उनके संबंध में व्यक्तिगत जानकारी भी उपलब्ध होती है।
लेख में संवत्सर परिचायक निशान नहीं दीख पड़ता। उसके आरंभ में केवल एक छोटी रेखा (स्ट्रोक) बनी है। कोई मांगलिक निशान भी नहीं है। "वी" अक्षर को अन्य अक्षरों से छोटा बनाया गया है जो उसके आद्य अक्षर होने को प्रकट करता है।
लेख की दूसरी पंक्ति में प्रथम निशान को 'आठ' के अंक का द्योतक नहीं माना जा सकता; किन्तु उसे पांच अंक का निशान मान लेने को अनेकों सादृश्य उपलब्ध हैं। 'सौ' अंक का परिचायक निशान भी अस्पष्ट है किन्तु 'चार' के अंक से वह कैसा भी कोई साम्य नहीं रखता। इसलिये ये ८४ संख्या बताने वाले निशान नहीं हैं।
इस प्रकार यह अभिलेख जैन इतिहास एवं संस्कृति का परिचायक दस्तावेज है। प्राचीनता और अपनी स्थान-स्थिति के कारण भी इसका अपना महत्त्व है।
-परमेश्वर सोलंकी ६. पं० ओझा ने इस सम्बन्ध में अपना मत स्पष्ट नहीं किया। डॉ० जायसवाल ने इसे अंकों और अक्षरों में लिखा होना बताकर नंद संवत् के रूप में पहचाने का सुझाव दिया है। दूसरे विद्वान् केवल ८४ अंकों को किसी संवत्सर के अंक न होने अथवा होने के सम्बन्ध में परिश्रम करते
वस्तुतः यह उल्लेख संघ से पृथक् अपना संप्रदाय बनाकर आचार्य बनें, आचार्य माहिल के पट्टाभिषेक की कालावधि को ज्ञापित करता है जो महावीर परिनिर्वाण से परिगणित है। संभवतः कालान्तर में यही संवत्सरउल्लेखों में भी कारण बना हो।