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जिनसेन कृत हरिवंश पुराण में प्राचीन
राजतंत्र का स्वरूप - डॉ० सोहन कृष्ण पुरोहित
पुराण लेखन आर्यों की प्राचीन साहित्य-परम्परा रही है। इस परम्परा से प्रभावित होकर जैनाचार्यों ने भी जैन-पुराणों की रचना की। आचार्य जिनसेन रचित हरिवंशपुराण उच्च कोटि की धार्मिक एवं साहित्यिक कृति है। इसमें वैष्णव एवं जैन परम्पराओं में सामञ्जस्य स्थापित करने का प्रयास किया गया है।
जिनसेन पुन्नाट संघ के प्रसिद्ध आचार्य कीतिषण के शिष्य थे। उन्होंने हरिवंश पुराण की रचना मध्य भारत के धार जिले के वर्धमानपुर (बदनावर) में प्रारम्भ कर दोस्तटिका (दुलरिया) में पूर्ण की। संस्कृत के इस ग्रन्थ को जिनसेन ने शक सम्वत् ७०५ (७८३ ई०) में लिख कर पूरा किया।'
हरिवंश पुराण में भगवान् नेमीनाथ और हरिवंश के नायक श्रीकृष्ण के जीवन चरित पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है । यद्यपि यह एक धार्मिक ग्रन्थ है लेकिन इसमें प्राचीन राजतन्त्र के विभिन्न पहलुओं का भी समावेश हो गया है। प्राचीन राज्यों एवं राजवंशों की जानकारी प्राप्त करने हेतु इस ग्रन्थ की महत्त्वपूर्ण उपादेयता है । हरिवंश पुराण के आधार पर हम प्राचीन राज्य-व्यवस्था की निम्न रूपरेखा खींच सकते हैं
राज पद
राज्य में राजा का महत्त्वपूर्ण स्थान था। वह अभिषेक के पश्चात् राजपद सुशोभित करता था। उसका शब्द ही कानून था । राजा की आज्ञा का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता था । वह प्रशासन का संचालम नीति (कानून) के अनुसार करता था।' राजा लोक-व्यवहार का ज्ञाता होता था। राजा नीतिज्ञ एवं न्यायपरायण होता था। सज्जन पुरुष राजा के आदर के पात्र थे। प्रजा की रक्षा करना राजा का कर्तव्य था । अवकाश के समय वह धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया करता था। प्रायः राजा जीव-हिंसा की इच्छा नहीं रखते थे। राजा धर्म परायण होते थे और वे कभी-कभी तपस्वियों से मिलने और आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु उनके आश्रमों पर भी जाया करते थे।
राजा प्राय: अपने बड़े पुत्र को युवराज या उत्तराधिकारी घोषित करते थे । किन्तु कई बार वे युवराजपद अपने छोटे पुत्र को भी प्रदान कर देते थे।
खंड १८, अंड ४
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