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जैन विश्व भारती संस्थान - एक परिचय
147 अर्तमुखता के कारण अध्यात्म-साधना में ही केन्द्रित रहा । आचार्य तुलसी को ही यह श्रेय है कि इन्होंने प्रथम जैन विश्वविद्यालय की स्थापना की जो सम्पूर्ण संसार में शान्ति एवं अहिंसा का केन्द्र बन रहा है । भारतमाता ग्रामवासिनी :
आधुनिक सभ्यता तथा उसके महानगरों को ही आज शिक्षा एवं संस्कृति का केन्द्र बनाया जाता है । लेकिन आचार्य तुलसी ने राजस्थान की एक मरूभूमि में एक छोटी सी जगह लाडनं (दिल्ली से ३८० किलोमीटर पश्चिम और जयपुर से २०० किलोमीटर उत्तर-पश्चिम) में विश्वविद्यालय की स्थापना कर विकास एवं प्रगति की भ्रांत अवधारणाओं को भी चुनौती दी है । फिर हमारा राष्ट्र तो गांवों का है । जिस तरह गांधीजी ने ग्रामीण विश्वविद्यालय की कल्पना की थी, रवीन्द्रनाथ ने तपोवन की छाया में शांतिनिकेतन का निर्माण किया, उसी तरह आचार्य तलसी ने भी जैन विश्वभारती को भारत की आत्मा यानी छोटे से गांव में स्थापित किया । यह भह सौभाग्य है कि लाडनूं आचार्यश्री की जन्मभूमि एवं कर्म-भूमि भी है । यह विश्वभारती उनकी मानस सन्तान है । वे इसके नैतिक एवं आध्यात्मिक निर्देशक या अनुशास्ता भी है जिसे भारत सरकार ने भी मान्य कर लिया है । विश्वविद्यालय के विविध अंग : शिक्षण, शोध एवं प्रशिक्षण तथा प्रसार-कार्य (क) शिक्षण-अध्ययन : अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अभी स्नातकोतर कक्षा तक चार विषयों में वर्ग चलते हैं । १. प्राकृत भाषा एवं साहित्य २. जैन विद्या (जैन दर्शन, जैनाचार, जैन साधना आदि) ३. अहिंसा एवं शांति शास्त्र ४. जीवन-विज्ञान एवं प्रेक्षा-ध्यान । प्रत्येक विषय में एक आचार्य, दो उपाचार्य एवं तीन व्याख्याताओं की आवश्यकता होती है । देश विदेश में जिज्ञास विद्यार्थियों का अभिनन्दन है । लाडनं से बाहर के विद्यार्थियों को हमने प्रोत्साहन स्वरूप ५०० रूपये प्रतिमाह की छात्रवृति देने का निर्णय लिया है। स्थानीय लाडनूं के विद्यार्थियों को ३०० रूपये प्रतिमाह देने की व्यवस्था है । (ख) शोध कार्य : यों तो हर विभाग में दो चार कनीय एवं वरीय शोध विद्यार्थी रहते हैं किंतु यहां तो साधुओं, साध्वियों एवं भ्रमण समणियों के द्वारा आचार्य तुलसी एवं युवाचार्य महाप्रज्ञ के निर्देशन में इस युग में आगम-संपादन का सबसे बड़ा सारस्वत-यज्ञ चल रहा है । सभी आगमों की व्याख्या, चूर्णि, संस्कृत छाया एवं हिन्दी अनुवाद के साथ संपादन को देखकर प्रसिद्ध जर्मन भारतीय विद्या के मनीषी प्रो. राथ के अनुसार इसके पीछे कोई देव-शक्ति है । आगम-कोष का महतर कार्य चल रहा है । इसके साथ अन्य दुर्लभ ग्रंथों का पुन: मुद्रण एवं सम्पादन भी होता है । कनीय शोधकर्ता को १५०० रूपये एवं
जनवरी- मार्च 1993
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