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________________ तुलसी प्रज्ञा 143 मूल्यों की समस्या में मूल्यों के भाव अथवा अभाव का प्रश्न कदापि नहीं है । समस्या मूल्यों के ज्ञान अज्ञान की नही है समस्या है मानवीय मूल्यों को अपनाने की तथा अवांछनीय मूल्यों को त्यागने की एवं उचित मूल्यों के आधार पर निर्णय लेने की। इसके लिये प्रथम आवश्यकता है विकल्पों का होना तथा चुनाव की स्वतन्त्रता जिसका अभाव एक जनतान्त्रिक देश में नहीं होता है । किन्तु सही मूल्यों के चुनाव में विवेक युक्त निर्णय तथा संकल्प शक्ति की दृढ़ता का होना आवश्यक है जिसका विकास सम्पूर्ण व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। सामाजिक सांस्कृतिक व राष्ट्रीय मूल्यों को आत्मसात करने से सिद्धान्त बनते हैं तथा व्यक्तित्व का निर्माण होता है | एक संगठित व्यक्तित्व अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज द्वारा स्वीकृत अनुमोदित मूल्यों के अनुसार ही उद्देश्यपूर्ण व्यवहार करते हैं । व्यक्तिगत उद्दश्यों में निहित मूल्य समायोजन तथा उचित व्यवहार के लिये आधार शक्ति व प्रेरणा देते हैं। मूल्यों में स्थायित्व न होने से और सिद्धान्त न बन पाने से व्यक्तित्व संगठित नहीं हो पाता है। हम अनिश्चय की अवस्था में या तो बाह्य सुझावों व दबाव के प्रति संवेदनशील होकर अथवा आन्तरिक संवेगों व मूल प्रवृत्तियों के आवेश में अकस्मात, असंगत तथा असामाजिक व्यवहार करते हैं | हमारे व्यवहार में स्थायित्व लाने के लिये भी मूल्यों का समुचित प्रशिक्षण देना विद्यालय का कर्तव्य है । हमारे व्यक्तित्व का गुण और हमारे व्यवहार का स्तर हमारे मूल्यों पर निर्भर करता है । मूल्य हमें उद्देश्य, सिद्धान्त तथा लक्ष्य निर्णय की शक्ति देकर हमारे व्यवहार को क्रियान्वित करते हैं । ये मूल्य जन्मजात नहीं होते हैं वे समाज में रहकर सीखे व अर्जित किये जाते हैं । सामाजिक अन्तः क्रिया से मूल्य अर्जित किये जाते हैं तथा उनके विकास में परिवार, विद्यालय, मित्र-मण्डली, तथा समाज की भूमिका होती है । तादात्य अनुकरण सुझाव आदि के द्वारा मूल्यों का विकास होता है। मूल्यों का प्रशिक्षण मूल्यों का प्रशिक्षण तथा विकास सरल कार्य नहीं। लिप्पिट के अनुसार एक बम्ब का विस्फोट करना सरल है किन्तु पूर्वाग्रह का दूर करना कठिन है । यह सत्य है क्योंकि मूल्य शून्य में विकसित नहीं होते हैं । वे व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व में ओतप्रोत होते हैं । अतः मूल्यों के प्रशिक्षण के लिये हमें सम्पूर्ण व्यक्तित्व को उसके सामाजिक परिप्रेक्ष्य में जानना समझना आवश्यक है। व्यक्ति के “स्वप्रत्यय"का उनमें प्रमुख स्थान होता है | नवीन तथा वांछित मूल्यों का विकास तभी संभव है जब तक व्यक्ति के "स्व" को आघात लगाए बिना उसका प्रशिक्षण दें । इस सन्दर्भ में सामाजिक पृष्ठभूमि पर भी विचार करना आवश्यक होता है। मूल्य प्रायः सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ही विकसित किये जा सकते हैं । शिक्षा के अनिवार्य तथा सार्वभौमीकरण करने के प्रयासों से यह पृष्ठभूमि अधिकाधिक असमान विविध जनवरी- मार्च 1993 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.524573
Book TitleTulsi Prajna 1993 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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