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________________ नलकूबर ने छह और श्रुत देव ने पांच अंग बताए हैं जबकि अंत में चार और तीन अंग नितांत जरूरी कहे गए हैं तस्मादेकेन मनसा भगवान्सात्वतां पतिः।। श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च ध्येयः पूज्यश्च नित्यदा ॥ कि सर्वदा एकाग्र चित्र से भगवद् गुण श्रवण, कीर्तन, ध्यान और पूजन नित्य करते रहना चाहिए। भक्ति मीमांसाकार कहता है-भक्तेः फलमीश्वरवशीकारः। -कि भक्ति से भगवान् बश में हो जाते हैं। भारतवर्ष में भक्ति का उद्गम बहुत प्राचीन है। शाण्डिल्य के अनुसार-भक्तिः प्रमेया श्रुतिभ्यः-कि भक्ति को निगमागम से प्रमाणित किया जा सकता है । उपनिषद् में भी भक्ति को अपरिहार्य बताया गया है यस्य देवे पराभक्तिर्य था देवे तथा गुरौ । तस्यैते कथितार्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।। -श्वेताश्वेतर उप० (६.२३) अर्थात् ज्ञान के तत्त्व भी उसे ही स्पष्ट होते हैं जो देव और गुरु में पराभक्ति रखे । 'पराभक्ति सूत्र' में भी यही कहा गया है-भजनीय तत्त्व ज्ञानं सालोक्याद् यश्च तत्फलम् । 'जैन धर्म और भक्ति'-शीर्षक अपने प्रस्तुत प्रबन्ध में डॉ० प्रेमसागर जैन ने भक्ति तत्त्व को बहुविध और बारम्बार विस्पष्ट करने के लिए जैन साहित्य के सभी अंग-प्रत्यंगों के संदर्भ दिए हैं, एतदर्थ उन्होंने कहीं भी पुनरुक्ति से बचने की चेष्टा नहीं की । प्रायः प्रत्येक पृष्ठ पर अपनी मान्यता को दोहरा दिया है । अभिभाषण अथवा प्रवचन के लिए यह बहुत रुचिकर हो सकता है किन्तु अपना सिद्धांत (थीसिस) स्थापित करने के लिए संभवतः यह तरीका ठीक नहीं । आचार्य कुन्दकुन्द उपर्युक्त शांडिल्य, नारद, पराभक्ति और भक्ति मीमांसा-सूत्रकारों के समकक्ष और संभवतः समकालीन भी, प्राकृत भाषा में लिखने वाले गाथाकार हैं । इसलिए अधिक वरेण्य हैं। डॉ० प्रेमसागर ने आचार्य कुन्दकुन्द के भक्तिपाठ को सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, योग भक्ति, आचार्य भक्ति, तीर्थंकर भक्ति, पंच गुरु भक्ति और निर्वाण भक्ति-उपशीर्षकों से संकलन किया है । संकलन अच्छा है । यदि उसका अर्थ और संदर्भ भी दे दिया जाता तो उनके सिद्धांत-प्रतिपादन संबंधी यह सर्वोत्तम आधार हो जाता। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन कि वीतरागी भगवान् के प्रति अनुराग सम्यग्दृष्टि होता है । सिद्धों की भक्ति से सम्यक् ज्ञान उत्पन्न होता है । तीर्थंकर ही आत्मदेव हैं । भक्ति के द्वारा रत्नत्रय की प्राप्ति होती है । शुद्ध ज्ञानरूप आत्मा ही चैत्य हैं और और चैत्यों की पूजा-वन्दना की जानी चाहिए । उत्तम क्षमा के प्रतीक आचार्य भक्ति योग्य हैं क्योंकि वे रत्नत्रय-सम्यक्दर्शन सम्यज्ञान, और सम्यक् चारित्र-के उपासक होते हैं । इत्यादि से स्पष्ट होता है कि वे सम्यक्त्व मूला भक्ति के उपासक थे। नियम २५८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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