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विनियोजन किया गया है ।
(ख) व्यापारी
इस संवर्ग में ऐसे उपमानों का संग्रहण किया गया है जो किसी न किसी व्यापार से सम्बद्ध हैं । उत्तराध्ययन में अनेक स्थलों पर जागरूकता, लक्ष्य के प्रति सतर्कता, संयम, कर्तव्य के प्रति उत्तरदायित्व आदि गुणों को उद्घाटित करने के लिए श्रेष्ठ पेशेवरों एवं विषण्णता, कायरता, खिन्नता आदि निकृष्ट भावों की अभिव्यञ्जना के लिए अनूत्तम कोटी के पेशेवरो को उपमान के रूप में उपस्थापित किया गया है ।
अश्ववाहक
रमए पण्डिएं सासं हयं मद्द व वाहए । बालं सम्मइ सासन्तो गलियस्सं व वहए ॥
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जैसे उत्तम घोड़े को हांकते हुए उसका वाहक आनन्द पाता है वैसे ही पंडित ( विनीत ) शिष्य पर अनुशासन करता हुआ गुरु आनन्द पाता है । जैसे दुष्ट घोड़े हांकते हुए उसका वाहक खिन्न होता है वैसे ही अविनीत शिष्य पर अनुशासन करता हुआ गुरु खिन्न होता है ।
प्रस्तुत संदर्भ में आचार्य (गुरु) की उपमा अश्ववाहक से विनीत शिष्य की श्रेष्ठ अश्व से एवं अविनीत की दुष्ट घोड़े से दी गई है । श्रेष्ठ अश्व शीघ्र ही गन्तव्य मार्ग पर चल देता है इसलिए उसका वाहक प्रसन्न होता है । उसी प्रकार 'इंगियागार संवन्न' शिष्य निर्देश मात्र से करणीय को ग्रहण कर लेता है, इसलिए आचार्य प्रसन्न होते हैं लेकिन अविनीत अड़ियल घोड़े की तरह होता है । खुद तो कष्ट पाता ही है गुरु को भी कष्ट देता है ।
वणिक्
साहस अदम्य उत्साह एवं निर्भीकता को प्रतिपादित करने के लिए वणिक् को उपमान बनाया गया है :
'अह सन्ति सुव्वया साहू जे तरन्ति अतरं
वणिया वा ॥"
- " अर्थात् जो सुव्रती साधु है वे दुस्तर काम जैसे वणिक् समुद्र को ।" यहां पर सुव्रती साधु की की उपमा सागर से दी गई है । जैसे वणिक् अपने साहस, धैर्य एवं पराक्रम के कारण
भोगों को उसी प्रकार तर जाते हैं। उपमा वणिक् से एवं कामभोगों
अगाध दुस्तर सागर का साधु काम भोगादि रूप को प्राप्त करता है । गया है ।
संतरण कर अनन्त धन को पा जाता है उसी प्रकार सुव्रती परिषह - समुद्र को संतरित कर मोक्ष रूप बहुमूल्य सम्पत्ति आगमों में अनेक स्थलों पर 'वणिक्' को उपमान बनाया
बलहीन-भारवाहक
विषण्णता, क्लिन्नता एवं असमर्थता आदि भावों को प्रतिपादित करने के लिए बलहीन भारवाहक को उपमान बनाया गया है :
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तुलसी प्रज्ञा
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