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________________ पर स्मृति प्रमाण सिद्ध होती है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति मानसिक अर्थ से होती है। बौओं का यह आक्षेप कि स्मृति का कोई स्वरूप एवं विषय नहीं है तथा स्मृति को स्वीकार करने पर प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों का लोप हो जाता है, तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि जैन दार्शनिकों के अनुसार स्मृति का अपना स्वरूप एवं विषय दोनों ही है, जो अन्य प्रमाणों से भिन्न है । स्मृति 'वह' स्वरूप वाली होती है तथा अनुभूत अर्थ को अपना विषय बनाती है, जबकि अन्य प्रमाण इस स्वरूप के नहीं होते हैं । दूसरे, बौद्धों के दोनों आक्षेपों पर विचार करने पर वे निराधार ही सिद्ध होते हैं, क्योंकि जैन दार्शनिकों ने न तो ज्ञान मात्र को स्मृति कहा है और न ही वस्तु मात्र को स्मृति का विषय बताया। बौद्धों का यह आक्षेप कि एक ही वस्तु को जब कोई व्यक्ति स्मृति से जान रहा होता है, तभी उसी वस्तु को कोई अन्य व्यक्ति प्रत्यक्ष से जानता है, तब उसका प्रत्यक्ष भी स्मृति हो जाएगा जो युक्तिसंगत नहीं है. क्योंकि ऐसा मानने पर जब आप किसी विषय वा अर्थ को अनुमान से जानते हैं, तब उसी विषय को कोई अन्य व्यक्ति उसी समय, जिस समय आप अनुमान से जानते हैं, प्रत्यक्ष से जानता हैं तो प्रत्यक्ष भी अनुमान हो जाएगा। दूसरे, ऐसा स्वीकार करने पर किसी भी प्रमाण की सत्ता नहीं रह पाएगी, क्योंकि एक ही वस्तु को जब भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रमाणों से जानेगे तब सभी प्रमाण एक दूसरे प्रमाण में गभित हो जाएंगे । ऐसी स्थिति में प्रमाण मान भी लें, तब एक से अधिक प्रमाण कहने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है । तीसरे, जब प्रत्यक्ष को स्मृति कह सकते हैं, तब स्मृति को भी प्रत्यक्ष कह सकते हैं । किन्तु ऐसी स्थिति में प्रमाणों में कोई भेद नहीं रह जाएगा । यदि भेद माना भी जाए, तब उनमें भेद करना कठिन हो जाएगा, क्योंकि प्रत्यक्ष को स्मृति कह रहे हैं और स्मृति को प्रत्यक्ष तथा यह भी निश्चित करना कठिन हो जाएगा कि कौनसा प्रमाण है और कौनसा अप्रमाण । चौथे, यदि एक ही विषय में एक से अधिक प्रमाणों की प्रवृत्ति मानी जाए तब 'प्रमाणसंप्लव' दोष होता है । स्मृति निविषय है, इस आक्षेप का परिहार करते हुए कहा गया है कि स्मृति निविषय नहीं है, क्योंकि उसका विषय 'अनुभूत अर्थ' होता है । अब यदि अनुभूत अर्थ को विषय करने पर भी उसे निविषय कहकर अप्रमाण कहते है, तब प्रत्यक्ष भी जब अनुभूत अर्थ को विषय करता है, अप्रमाण होगा, जो युक्ति संगत नहीं है ।" दूसरे, स्मृति को पराधीन होने के कारण अप्रमाण कहते हैं, तब अनुमान भी अप्रमाण है, क्योंकि वह व्याप्ति ज्ञान-तर्कप्रमाण-के अधीन है । दूसरे, यदि यह स्वीकार कर लिया जाए कि जिस प्रमाण का विषय वर्तमान काल में नहीं होता है, वह अप्रमाण है। तब प्रत्यक्ष भी संभव नहीं है, क्योंकि जिस समय इन्द्रिय का वस्तु के साथ सम्बन्ध होता है उस समय प्रत्यक्ष नहीं होता है और जिस समय प्रत्यक्ष होता है उस समय वह वस्तु नष्ट हो चुकी होती है । दूसरे, अनुमान भी संभव नहीं है, क्योंकि अनुमान हेतु को देख कर किया जाता है और हेतु को देखकर उसके कारण अर्थात् जिससे हेतु उत्पन्न है उसका निर्णय करते हैं, तब तक वह नष्ट हो चुका होता है, क्योंकि जो भी वस्तु उत्पन्न होती है वह कुछ न कुछ नष्ट करके ही खण्ड १८, अंक ३, (अक्टू०-दिस०, ९२) २२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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