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________________ द्वारा ग्रहण किए गए विषय को ही विषय करने पर भी उसमें कुछ नवीनता रहती है, क्योंकि धारणा रूप इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय 'यह' ऐसा होता है जबकि स्मृति का विषय 'वह' ऐसा होता है तथा अपने विषय में होने वाले अस्मृति आदि समारोपों को दूर करती है ।३५ कुछ समय के लिए इस समाधान को न भी मानें तब भी यह आक्षेप निराधार है, क्योंकि 'ग्रहीतग्राही' का अर्थ होता है, जो ज्ञाता जिस अर्थ विशेष को जिस कालविशेष, देश-विशेष और संदर्भ विशेष में जिस साधन या माध्यम से जानता है, उसी साधन या माध्यम से वही ज्ञाता पुनः उसी अर्थ-विशेष को उसी काल-विशेष, देशविशेष सन्दर्भ-विशेष में जाने या ग्रहण करे । किन्तु न तो ऐसा संभव है और न ही यह स्मृति पर लागू होता है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रत्येक घटना और अर्थ में नवीनता एवं अपूर्वता का अंश होता है । अतः सिद्ध होता है कि स्मृति ‘गृहीतग्राही' नहीं है और ग्रहीतग्राही नहीं होने के कारण उसमें नवीनता या अपूर्वता का अंश ही नहीं, अपितु नवीनता या अपूर्वता को पूर्ण रूप से लिए हुए होती है। जयन्त का यह कहना भी युक्ति संगत नहीं है कि अर्थ से उत्पन्न नहीं होने के कारण स्मृति अप्रमाण है, क्योंकि 'अर्थ से उत्पन्न होने' को प्रमाणता का आधार नहीं माना जा सकता है । प्रमाणता का आधार 'अविसंवाद' को ही माना जा सकता है । यदि कुछ समय के लिए अर्थ से उत्पन्न होने को प्रमाणता का आधार मान भी लें, तब भूत और भविष्य को विषय करने याले अनुमान भी अप्रमाण होंगे ।१६. शालिक नाथ एवं जयन्त के इन आक्षेपों कि स्मृति इन्द्रिय और विषय के सन्नि कर्ष एवं अर्थ से उत्पन्न नहीं होती है, पर विचार करने पर ये तर्कसंगत नहीं बैठते, क्योंकि यहां प्रश्न होता है कि 'अर्थ' से आपका क्या तात्पर्य है ? अर्थ से आपका तात्पर्य भौतिक अर्थ से है या मानसिक अर्थ से या दोनों से । यदि अर्थ का तात्पर्य भौतिक अर्थ से है तब गणितीय ज्ञान, ज्यामितीय ज्ञान, ज्योतिषीय ज्ञान आदि ज्ञान न तो इन्द्रिय और सन्निकर्ष से होते हैं और न ही भौतिक अर्थ से । तब ये समस्त ज्ञान (अयथार्थ) ज्ञान की श्रेणी में आ जाएंगे, जो न्यायोचित नहीं है। दूसरे, जो ज्ञान सन्निकर्ष या भौतिक अर्थ से उत्पन्न नहीं होता है, वह अयथार्थ ज्ञान है। तब ऐसी स्थिति में उन विषयों की सत्ता को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, जो इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है, अर्थात् जो भौतिक अर्थ के रूप में नहीं है, उसकी कोई सत्ता है । किन्तु ऐसी स्थिति में मीमांसकों के 'वेद' तथा नैयायिकों के 'ईश्वर' एवं 'सामान्य' की कोई सत्ता नहीं रह जाती है । तीसरे सुख-दुःख का ज्ञान किस भौतिक अर्थ से उत्पन्न होता है ? बुद्धि किस भौतिक अर्थ को विषय बनाती है ? चौथे, प्रभाकर मीमांसकों ने 'अर्थापत्ति' को प्रमाण माना है । तब वह भी प्रमाण नहीं हो सकता है, क्योंकि अर्थापत्ति ज्ञान में विषय और इन्द्रियों का सन्निकर्ष नहीं होता है । ___ यदि अर्थ का तात्पर्य मानसिक अर्थ से है, तब समस्त भौतिक विषयों के ज्ञान को अयथार्थ ज्ञान एवं इन्द्रिय प्रत्यक्ष को अप्रमाण मानना होगा। तीसरे अर्थ में, अर्थ का तात्पर्य दोनों अर्थों से-भौतिक एवं मानसिक अर्थ-हो सकता है । किन्तु ऐसा मानने २२८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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