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नहीं है । धारणा या संस्कार के बिना भी स्मृति संभव नहीं है, क्योंकि स्मृति धारणा या संस्कार से होती है, अवग्रह आदि से नहीं। २ धारणा होने पर भी यदि उसकी जागृति नहीं हो तब भी स्मृति संभव नहीं है, क्योंकि धारणा को जागृति के बिना ज्ञान अनुभूत अर्थ को विषय नहीं कर सकता है और धारणा की जागृति'४ कर्मों के आवरण के क्षय उपशम होने पर या सदृश अर्थ के दर्शन होने पर होती है । इसके पश्चात् अनुभूत अर्थ का स्मरण हो जाता है ।
यहां प्रश्न होता है कि यह कैसे कहा जाए कि स्मृति प्रमाण है, अर्थात् स्मृति के प्रमाण होने का आधार क्या है ? इसके जबाब में कहा गया है कि स्मृति आदि सभी परोक्ष प्रमाण, प्रमाण है, क्योंकि वे अपने-अपने विषय को विषय करने में 'स्व', 'पर' प्रकाशी और निर्वाधक हैं तथा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों की तरह वह अविसंवादी हैं, क्योंकि स्ययं द्वारा स्थान विशेष पर रखी गई वस्तु विशेष की स्मृति के आधार पर तलाश करने पर वह उसी स्थान पर मिल जाती है, अर्थात् स्मृति के आधार पर प्रवृत्ति करने पर सफलता मिलती है, उसमें कोई विसंवाद नहीं होता है। इसी समस्या का समाधान करते हुए प्रमेयकमलमार्तण्ड में कहा गया है कि विस्मरण, संशय
और विपर्यय स्वरूप समारोप का निराकरण करने से स्मृति प्रमाण है। दूसरे प्रमाण हित की प्राप्ति और अहित के परिहार में समर्थ होता है अर्थात् जो ज्ञान हित की प्राप्ति और अहित के परिहार में समर्थ हो, उसे प्रमाण मानना चाहिए । स्मृति से हित की प्राप्ति तथा अहित का परिहार होता है जैसे पूर्व काल में अग्नि से हाथ जल जाने पर भविष्य में हम स्मृति के आधार पर ही अग्नि को नहीं छूते हैं । यदि ऐसी स्मृति नहीं होती तो भविष्य में भी अग्नि को छूते, जिससे हाथ जल जाता और इस हाथ के जलते रूप अहित का परिहार नहीं कर सकते । इसी प्रकार स्मृति के आधार पर हित की प्राप्ति होती है, जैसे पूर्वकाल में कहीं रखी गई किसी उपयोगी वस्तु को स्मृति के आधार पर प्राप्त कर लेना । इससे सिद्ध होता है कि स्मृति प्रमाण है।
किन्तु जन प्रमाण मीमांसा में प्रमाण के दो भेद-प्रत्यक्ष और परोक्ष-किए यए हैं ।" तब प्रश्न होता है कि स्मृति को परोक्ष प्रमाण क्यों माना गया है ? प्रत्यक्ष क्यों नहीं ? जैन दार्शनिकों के अनुसार जो ज्ञान निर्मल और स्पष्ट है, वही प्रत्यक्षहै । अर्थात् जिस ज्ञान की उत्पत्ति में किसी दूसरे ज्ञान की अपेक्षा है, अर्थात् जिस ज्ञान की उत्पत्ति में प्रत्यक्षादि ज्ञान निमित्त हो वह परोक्ष प्रमाण है ।” स्मृति के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वह निर्मल एवं स्पष्ट हैं तथा उसका कोई दूसरा ज्ञान निमित्त नहीं, अर्थात् स्मृति उत्पत्ति में स्वतंत्र नहीं है, अपितु दूसरे ज्ञान-धारणा रूप प्रत्यक्ष -पर आश्रित है । अतः उसे प्रत्यक्ष नहीं माना जा सकता, परोक्ष ही माना जा सकता
पुनः प्रश्न होता है कि स्मृति के निमित्त-धारणा-का स्वरूप क्या है ? इसके जबाब में कहा गया है कि कालांतर में न भूलने में जो कारण है, उसे 'धारणा' कहते हैं । २२ हेमचन्द्र ने धारणा का लक्षण किया कि जो स्मृति का कारण है, वह 'धारणा' है।" प्रमाण मीमांसा स्वोपज्ञ वृत्ति में धारणा को 'संस्कार' कहा गया है । ये संख्यात
खंड १८, अंक ३ (अक्टू०-दिस०, ९२)
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