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आचार्यश्री तुलसी की राजस्थानी भाषा-शैली
- डॉ० मनोहर शर्मा
भारतवर्ष के इतिहास में राजस्थान का अपना विशिष्ट स्थान है । इस वीरभूमि के इतिहास-पुरुषों ने त्याग और बलिदान के जो आदर्श उपस्थित किए हैं, उन पर संपूर्ण भारत, गर्व का अनुभव करता है; परन्तु विडम्बना है कि राजस्थान के महाप्राण नर-नारियों का चरित्र-निर्माण करने वाले तत्व की ओर अभी तक देशवासियों का समुचित ध्यान नहीं गया है और इस प्रकार उस केन्द्र से भारतीय प्रजा को कोई लाभ प्राप्त नहीं हो रहा है । कहना न होगा कि वह प्रकाश-केन्द्र है--राजस्थानी भाषा और उसका साहित्य । यह साहित्य-सम्पत्ति अति-विस्तृत, वैविध्यपूर्ण एवं महिमामय है, जिसकी देश-विदेश के अनेक विद्वानों ने, साधारण जानकारी होने पर भी, मुक्त कंठ से प्रशंसा की है।
राजस्थानी साहित्य का जो कुछ भी अंश साहित्य जगत् के सामने आ सका है, उससे सुधी-समाज को आनन्द-मिश्रित आश्चर्य अवश्य हुआ है; परन्तु वहां कोई खास-सक्रियता दृष्टिगोचर नहीं होती। विपुल परिणाम में राजस्थानी साहित्य पुराने ग्रन्थागारों के बस्तों में बन्धा पडा है और प्रकाश में आने की प्रतीक्षा में है।
राजस्थानी साहित्य का इतिहास पिछले लगभग एक हजार वर्षों की सीमा-अवधि में आता है । उत्तर कालीन अपभ्रंश से ही इसका प्रारंभ समझना चाहिए। उसका आदि-स्वरूप आचार्य हेमचन्द्र द्वारा अपने व्याकरण ग्रन्थ में संकलित उन बहुसंख्यक दोहों में दृष्टव्य है, जिनको कुछ विद्वानों ने "पुरानी हिन्दी" संज्ञा दी है परन्तु यथार्थ में वह "प्राचीन राजस्थानी" और "जूनी गुजराती" है। उसका सम्बन्ध भी प्राचीन राजस्थान एवं प्राचीन गुजरात के एकीकृत भूभाग से ही है । ____ राजस्थानी साहित्य के इतिहास को तीन भागों में बांटा जाता है-आरंभकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल । प्रतीत होता है कि आदिकालीन राजस्थानी का शौर्यमूलक काव्य प्रायः मौखिक परम्परा पर अवस्थित होने के कारण विलुप्त सा हो गया है परन्तु तत्कालीन शीलप्रधान काव्य किसी रूप में अद्यावधि सुरक्षित है और वह जैन-धर्म एवं समाज से संबंधित है। इस विषय में अनेक ग्रंथ प्रकाश में आए हैं जैसे-मरते श्वर बाहुबली घोर (वज्रसेन सूरी, संवत् ११२५ वि०), भरतेश्वर बाहुबली रास (शालिभद्र), जीवदया रास (आसगु), आबूरास (पाल्हण), रेवंतगिरी रास (विजयसेनसूरि), नेमिनाथ चउपई (विनयचंद्र सूरि) स्थूलि भद्र फागु (जिनपद्मसूरि), नेमिनाथ फागु (जयशेखर सूरि) आदि । इन काव्यों की संख्या बड़ी है परन्तु यहां
खंड १८, अंक ३, (अक्टू०-सित०, ९२)
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