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________________ संदर्भ १. कर्मवाद, पृ० १०२ – युवाचार्य महाप्रज्ञ । २ . वही । ३. 'वैज्ञानिक विकास की भारतीय परम्परा', पृ० १५९ । - डा० सत्य प्रकाश डी० एस-सी० -किमत्र चित्रं यदि पीत गंधक: पलाश निर्यास रसेन शोधितः । आरण्यकैरुत्पलकैस्तु पाचितः करोति तारं त्रिपुटेन काञ्चनम् ।। ४. वही - किमत्र चित्रं रसको रसेन क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रञ्जितः करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम् ।। ५. नालन्दा विशाल शब्द सागर, पृ० १३७२-७३ । ६. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश (भाग ४) पृ० ८२ । ७. (क) 'जैन कर्म सिद्धांत और मनोविज्ञान' पृ० १६३ । (ख) गोम्मटसार कर्मकांड, जीव तत्त्व प्रदीपिका ४६८।५९१।१४ - पर प्रकृति रूप परिणमनं संक्रमणम् । ८. (क) जैन कर्म सिद्धांत और मनोविज्ञान पृ० १६३ । (ख) नव पदार्थ - आचार्य भीखणजी | टिप्पण अनुवादक - श्री चन्द रामपुरिया, पृ० ७२६ । (ग) जैन धर्म और दर्शन, पृ० ३०७ । (घ) संक्रमकरणम् ( भाग १ ) पृ० २ : कर्म प्रकृतौ — 'सो संकमो त्ति वुच्चइ जं बन्धन परिणओ पओगेण । पगयन्तरत्थं दलियं, परिणमयइ तयणु भावे जं' ॥ १ ॥ ९. जिनवाणी - कर्म सिद्धांत विशेषांक, अक्टूबर-दिसंबर '८४ ' - करण सिद्धांत - भाग्य निर्माण की प्रक्रिया पृ० ८१ । - श्री कन्हैयालाल लोढ़ा १०. वही, पृ० ८२ । ११. ठाणं, ४.२-९७ : चउब्विह संकमे पण्णत्ते, तं जहापगति संकमे, ठिति संकमे, अणुभाव संकमे, पएस संक । १२. गोम्मटसार कर्म कांड, मूल व जीव तत्त्व प्रदीपिका-४१० । संकमणं ॥ ४१० ॥ मूल प्रकृतीनां परस्पर संक्रमणं नास्ति, णत्थि मूलपयडीणं । १३. ( क ) तत्त्वार्थं ८. २२ भाष्य : उत्तर प्रकृतिसु सर्वासु - मूल प्रक्रत्यभिन्नासु न तु मूल प्रकृतिषु संक्रमो विद्यते, उत्तर प्रकृतिषु च दर्शन चारित्रमोहनीययोः सम्यग्मिथ्यात्व - वेदनीयस्यायुष्कस्य च। (ख) तत्त्वार्थ ८. २२, सर्वार्थसिद्धि : - अनुभवो द्विधा प्रवर्तते स्वमुखेन परमुखेन च । सर्वासां मूल प्रकृतीनां २११ खंड १८, अंक ३ (अक्टू० - दिस०, ९२ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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