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________________ और जो अशुभ रूप में बंधा है, उसका विपाक अशुभ होता है। यह दूसरा विकल्प है-इन दोनों विकल्पों में कोई विमर्शणीय तत्त्व नहीं है, किन्तु दूसरा और तीसरा-ये दोनों विकल्प महत्त्वपूर्ण हैं, और ये संक्रमण सिद्धांत के प्ररूपक हैं। संक्रमण का सिद्धांत पुरुषार्थ का सिद्धांत होता है। ऐसा पुरुषार्थ होता है कि अशुभ-शुभ में और शुभ अशुभ में बदल जाता है । हम पुरुषार्थ का मूल्यांकन करें, हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि सारा दायित्व कर्तृत्व का है, पुरुषार्थ का है।" मूल वृत्तियों में परिवर्तन ____ व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास मूल वृत्तियों के परिवर्तन पर ही निर्भर होता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार यह परिवर्तन चार" पद्धतियों द्वारा सम्भव है १. अवदमन (Repression) २. विलयन (Inhibition) ३. मार्गान्तरीकरण (Redirection) और ४. शोधन (Sublimation) । अवदमन-मूल प्रवृत्तियों का दमन करना जल-प्रवाह पर बांध बांधने के समान होता है । इससे अनेक भावना-ग्रन्थियां उत्पन्न हो जाती हैं। विलयन-इसके दो अंग हैं (१) निरोध और (२) विरोध । निरोध का तात्पर्य वृत्ति को उत्तेजित होने के लिए अवसर ही न देने से है। विरोध-में दो पारस्परिक विरोधी प्रवृत्तियों को एक साथ उत्तेजित कर देने से मूल वृत्तियों में परिवर्तन होता है । संग्रह-वृत्ति, त्याग-भावना से शांत की जा सकती है । स्नेह, सहानुभूति और खेल की प्रवृत्ति उत्पन्न कर देने से युयुत्सा प्रवृत्ति में परिवर्तन लाया जा सकता है। यही बात पातंजल योग, में कही गयी है-'वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनम्'२२ । अर्थात् अशुभ भावना को तोड़ना है तो शुभ भावना पैदा करो। 'दशवकालिक' सूत्र में चार आवेगों की प्रतिपक्षी भावना का सुन्दर निरूपण किया गया है उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायामज्जव भावेण, लोभं संतोसओ जिणे ।।२१। -'यदि क्रोध के भाव को नष्ट करना तो उपशम-क्षमा के संस्कार को पुष्ट करना होगा। उपशम का भाव जितना अधिक पुष्ट होगा, क्रोध का आवेग उतना ही क्षीण होता चला जाएगा। अभिमान के आवेग-भाव को विनम्रता से जीता जा सकता है । माया के आवेग को नष्ट करने के लिए ऋजुता–आर्जव-सरलता के संस्कार को पुष्ट करना होगा। लोभ की प्रवृत्ति संतोष के भाव से नष्ट या कम की जा सकती है।' अतः भोग की प्रवृत्ति के शमन के लिए त्याग की उदात्त भावना को जीवन का अंग बनाना पड़ेगा ।यही भाग्य को बदलने का सिद्धांत है। २१. तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524572
Book TitleTulsi Prajna 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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