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अनुप्रेक्षा : विचारों का सम्यक् चिन्तन
- डा० रज्जन कुमार
[चिन्तन करना मानव का स्वभाव है। वह जब तक जीवित रहता है सद व चिन्तन करता रहता है। चिन्तन के लिए वह मस्तिष्क, मन, बुद्धि, प्रज्ञा आदि का प्रयोग करता है। मनुष्य जो कुछ भी चिन्तन करता है, सोचता है और उसे भाषा में व्यक्त करता है, वह उस मनुष्य का विचार कहा जाता है। विचार अच्छे एवं बुरे दोनों प्रकार के हो सकते हैं। प्रायः मनुष्य के जिस चिन्तन से किसी अन्य जीव की हानि नहीं होती है उसे अच्छे विचार एवं जिससे किसी प्राणी की हानि होती है उसे बुरे विचार कहते हैं। अच्छे विचार को व्यक्ति का सद्गृण एवं बुरे विचार को व्यक्ति का दुर्गुण कहा जाता है। जैन-परम्परा में अनुप्रेक्षा के रूप में अच्छे विचार पर व्यापक चिंतन हुआ है। प्रस्तुत निबन्ध में उसी पर प्रकाश डालागया है।
-संपादक] मानव-मन में चिंतन की प्रक्रिया अबाध गति से चलती रहती है । चितन की इस परिस्थिति में व्यक्ति के मन में नाना प्रकार के प्रपंच भाव उठते रहते हैं। कभी उसके मन में 'स्व' के कल्याण का भाव उठता है तो कभी 'पर' के कल्याण का। इसे शुभ प्रवृत्ति कहा जा सकता है। परंतु कभी-कभी व्यक्ति के मन में 'पर' के प्रति द्वेष का भाव उत्पन्न हो जाता है और इस द्वेष के वशीभूत होकर वह 'पर' की हानि करने के लिए विभिन्न प्रकार के उपक्रम करने लगता है। उसके इस कार्य से उसकी आत्मा दूषित होने लगती है, और वह संसार के बंधन में बुरी तरह जकड़ जाता है।
__ जैन-दर्शन में कर्म को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है । इसे व्यक्ति के भाग्य का निर्धारक तत्त्व भी स्वीकार किया गया है। 'भगवती सूग' में कहा गया है कि जीव द्वारा किया गया कर्म कभी भी निष्प्रयोजन नहीं होता। यह अपना फल अवश्य देता है ।' फल से तात्पर्य परिणाम से है। जीव जैसा कर्म करता है उसे उसी के अनुरूप परिणाम भोगना पड़ता है। कर्म मानसिक, वाचिक और कायिक तीनों ही रूप में फलित होता है । कर्म की इन तीन कोटियों में प्रमुख मानसिक कर्म ही है क्योंकि हम जैसा विचार करेंगे उसी के अनुरूप हमारी वाणी प्रस्फुटित होगी और हमारा शारीरिक प्रयत्न भी उसी के अनुरूप होगा। इसीलिए जैन दर्शन में मानसिक शुद्धि पर ज्यादा बल दिया गया है। मानसिक शुद्धि के लिए तथा सम्यक् विचार के प्रतिपादन
खण्ड १८, अंक ३, (अक्टू-दिस०, ९२)
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