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________________ समीक्षा अनुसार जगत् में जो कुछ भी है वह द्रव्य है या द्रव्यों से जगत् के समस्त तत्त्वों की व्याख्या की जगत् का ज्ञान होता है जिससे ज्ञान में एवं तथा व्यक्ति को स्वयं आत्मन् - का गहराई से "स्व" तथा "पर" के भेद को समझा जाता है इस प्रकार जैन दार्शनिकों के उसके नित्य या अनित्य धर्मं । उन्हीं जा सकती है । दूसरा इस सिद्धान्त से जगत् में एक व्यवस्था देखी जा सकती ज्ञान होता है, जिससे "मैं और "यह", है जो मोक्ष में सहायक है । इस सिद्धांत की विशिष्टता यह है कि यह अनेकांत दृष्टि को लिये हुए है जिससे यह एकांतवादों में होने वाले दोषों से मुक्त है किन्तु ऐसा नहीं लगता कि यह सिद्धांत पूर्णतः निर्दोष है, क्योंकि इसमें भी कुछ असंगतियां है जिनकी ऊपर चर्चा की जा चुकी है। यहां एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि मोक्ष द्रव्य है या नहीं ? यदि मोक्ष द्रव्य है तब तो द्रव्य सात होते हैं जो जैनों को स्वीकार नहीं है । यदि मोक्ष द्रव्य नहीं है तब वह या तो गुण है या पर्याय । इसके अतिरिक्त किसी की सत्ता नहीं है । यदि मोक्ष को जीव का गुण स्वीकार किया जाये तब तो जीव नित्य मुक्त होना चाहिए था क्योंकि गुण नित्य है और यदि जीव की पर्याय मानी जाये तब यह कैसे कहा जा सकता है कि जीव मुक्त होने पर बद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि पर्याय अनित्य है । अन्त में इस सिद्धांत से पांच निष्कर्षो पर पहुंचा जा सकता है जो जगत् के बारे में महत्त्वपूर्ण पक्षों को प्रकाश में लाते हैं । ये निष्कर्षं निम्नलिखित रूप से हैं: १. जगत् में जो कुछ है " द्रव्य" है । " द्रव्य" गुण तथा पर्याय से स्वतन्त्र वस्तु नहीं है और पर्याय गुणों की अवस्थाएं हैं, गुणों से भिन्न कोई वस्तु सत्ताएं नहीं है | अतः जगत् का परम तत्त्व जिससे जगत् निर्मित है मात्र गुण ही हैं जो अनेक हैं । २. सम्पूर्ण दृश्य जगत् और उसके विषय पर्याय रूप में है अर्थात् जो भी हम देख रहे हैं, जान रहे हैं वे गुणों की अवस्थाएं मात्र हैं, जो परिवर्तनशील, क्षणिक, और अनित्य है । ३. परमाणु पांच कणों के समूह हैं । क्योंकि परमाणु में पांच गुण - एक रस, एक रूप, एक गंध और दो स्पर्श होते हैं और ये गुण कण रूप में ही हो सकते हैं । ४. मन, रूप रस, गंध, तथा स्पर्शं गुणों का समूह मात्र हैं, क्योंकि मन पुद्गल है और पुद्गल वह है जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श है । ५. काल द्रव्य अनेक हैं, जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं उतने ही काल द्रव्य हैं प्रत्येक परमाणु का अपना अलग एक काल है । कोई एक सर्वव्यापी काल नहीं है। संदर्भ सूची १. आप्तमीमांसा - तत्त्वदीपिका, प्रस्तावना, पृ० ८९ २. आप्तमीमांसा—तत्त्वदीपिका, पृ० १०३, १०२ ३. समयसार - आत्मख्याति, गा० १० / २४७ । आप्तमीमांसा - तत्त्वदीपिका, प्रस्तावना, पृ० ८९ खण्ड १८, अंक २ (जुलाई-सित०, ९२ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only १२९ www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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