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है वह आकाश है । आकाश एक सर्वव्यापक, अखण्ड है तथा रूप, रस आदि गुणों से रहित होने के कारण अमूर्त है । आकाश सब का आधार है पर स्वयं आकाश का कोई आधार नहीं है । आकाश के कारण ही विस्तार संभव है किन्तु जिसका स्वाभाविक गुण विस्तार नहीं उसे आकाश विस्तृत नहीं कर सकता है । आचार्य कुन्दकुन्द का मत है कि छहों द्रव्य परस्पर एक दूसरे में प्रवेश कर रहे हैं, एक दूसरे को अवकाश दे रहे हैं। यहां प्रश्न होता है कि जब छहों द्रव्य एक दूसरे को स्थान दे रहे हैं तब आकाश को स्वतन्त्र द्रव्य क्यों माना ? अर्थात् ऐसी स्थिति में आकाश को मानने की क्या आवश्यकता है ?
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आकाश के दो भेद - लोकाकाश और अलोकाकाश है ४ धर्म, अधर्मं, काल, पुद्गल और जीव ये द्रव्य जिस आकाश में रहते हैं वह लोकाकाश है ।" लोकाकाश से परे जो आकाश है वह अलोकाकाश है, जिसमें कोई भी, द्रव्य नहीं है अर्थात् वह पूर्णतः रिक्त है । यहां प्रश्न है कि क्या पूर्णतः रिक्तता सम्भव है ? दूसरा अलोकाकाश को आकाश कैसे माना जा सकता है, क्योंकि आकाश की परिभाषा की गई है कि जो जीव आदि द्रव्यों को अवकाश देता है वह आकाश हैं" और अलोकाकाश इनको स्थान नहीं देता है । दूसरी ओर अलोकाकाश को पूर्णतः रिक्त मानना भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि अलोकाकाश ज्ञेय है या नहीं ? यदि वह ज्ञान का विषय नहीं हैं तब तो उसकी सत्ता ही नहीं है, और यदि ज्ञान का विषय है, तब यह नहीं कहा जा सकता कि वह पूर्णतः रिक्त है, क्योंकि जैन दार्शनिकों के अनुसार समस्त द्रव्य ज्ञान के अन्तर्गत हैं और ज्ञान जीव का गुण है तथा ज्ञान एवं जीव का क्षेत्र एक ही है । इससे यह सिद्ध होता है कि अलोकाकाश में कम से कम ज्ञान तथा जीव तो हैं । तब यह कहना की अलोकाकाश में कुछ भी नहीं है, युक्तियुक्त नहीं ।
काल द्रव्य
जीव तथा पुद्गल बाह्य निमित्त की सहायता से क्रियावान होता है जिसमें जीत पुद्गल का निमित्त पाकर क्रियावान् होता है और पुद्गल काल का निमित्त पाकर । यहां प्रश्न है कि काल का स्वरूप क्या हैं ? इसके जबाब में जैन दार्शनिकों का मत है कि, भिन्न-भिन्न क्षणों में वर्तमान रहना, परिणमन, पहले होना और बाद में होना ये जिस निमित्त से होते हैं उसको काल कहते हैं । " काल भी परिणमन का सहकारी निमित्त कारण है प्रेरक नहीं ।" यहां प्रश्न है कि जब धर्म द्रव्य गति का सहायक है तब काल को क्यों स्वीकार किया ?
पुनः जैन दार्शनिकों के अनुसार काल रूप, रस रहित होने के कारण अमूर्तिक हैं तथा एक प्रदेशी होने के कारण अनस्तिकाय है । लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एकएक काल द्रव्य है ।" इसका अभिप्राय यह है कि काल द्रव्य अनेक हैं अर्थात् प्रत्येक प्रदेश का अपना-अपना काल है । कोई ऐसा काल नहीं है जो सर्वव्यापक हो जैन दार्शनिकों ने काल के दो भेद किये है एक निश्चय काल दूसरा व्यवहार काल ? सैकिण्ड, मिनिट, घंटा, दिन आदि व्यवहार काल है जो अनित्य तथा द्रव्याश्रित है । जो नित्य तथा किसी पर अश्रित नहीं है वह निश्चय या परमार्थ काल है ।
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तुलसी प्रज्ञा
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