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सचल मुनि के लिए 'श्रमण' । भगवती आराधना एवं उसकी अपराजित की टीका से यह स्पष्ट है कि यापनीय परम्परा में अपवाद मार्ग में मुनि के लिए वस्त्र पात्र ग्रहण करने का निर्देश है । ४
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वस्त्रादि के संदर्भ में उपरोक्त सभी तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए यह कहा जा सकता है कि जटासिंहनन्दि और उनका वरांगचरित भी यापनीय / कूचंक परम्परा से सम्बद्ध रहा है ।
होती है इससे अन्य रूप में शील आदि से ब्राह्मण होता
१३. वर्ण व्यवस्था के सन्दर्भ में भी वरांगचरित के कर्ता जटा सिंहनन्दि का दृष्टिकोण आगमिक धारा के अनुरूप अति उदार है । उन्होंने वरांगचरित के पच्चीसवें सर्ग में जन्मना आधार पर वर्ण व्यवस्था का स्पष्ट निषेध किया है । वे कहते हैं कि वर्णं व्यवस्था कर्म-विशेष के आधार पर ही निश्चित नहीं । ४२ जातिमात्र से कोई विप्र नहीं होता, अपितु ज्ञान, है । ज्ञान से रहित ब्राह्मण भी निकृष्ट है किन्तु ज्ञानी शूद्र भी वेदाध्ययन कर सकता है । व्यास, वसिष्ठ, कमठ, कण्ठ, द्रोण, पराशर आदि ने अपनी साधना और सदाचार से ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्ण-व्यवस्था के संदर्भ में वरांगचरितकार का दृष्टिकोण उत्तराध्ययन आदि आगमिक धारा के निकट है । पुन: इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि जटासिंहनन्दि उस दिगम्बर परम्परा के नहीं हैं जो शूद्र-जल त्याग और शूद्र-मुक्ति निषेध करती है । इससे जटासिंहनन्दि और उनके ग्रन्थ वरांगचरित के यापनीय अथवा कूर्चक होने की पुष्टि होती
है ।
संदर्भ
१. यापनीय और उनका साहित्य; डॉ० कुसुम पटोरिया पृ० १५७ - १५८ ।
२. वरांगनेय सर्वांगैर्वराङ्गचरितार्थं वाक् ।
कस्य नोत्पादयेद्गाढ मनुरागं स्वगोचरम् ॥
३. काव्यानुचिन्तने यस्य जटाः प्रचलवृत्तयः । अर्थान्स्मानुवदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात् ॥
- हरिवंशपुराण (जिनसेन ), १/३४-३५
४. जेहिं कए रमणिज्जे वरंग पउमाण चरियवित्थारे । कह व ण सलाह णिज्जे ते कइणो जडिय - रविसेणो ॥
७. आर्यनुत- गृधपिंछा
खण्ड १८, अंक २, (जुलाई-सित०, ९२ )
- आदिपुराण ( जिनसेन ), १ / ५०
- कुवलयमाला,
५. ऐदनय श्रोतृवबों जटा सिंहनंद्याचार्यर वृत्तं - उद्धृत वरांगचरित, भूमिका पृ० ११ ६. मुणिमहसेणु सुलोयणु जेण पउमचरिउ मुणिरविसेणेण । जिणसेणेण हरिवंसु पवित्तु जडिलमुणिणा वरंगचरित्तु ॥
- हरिवंश, उद्धृत वरांगचरित, भूमिका पृ० १०
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