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सिद्धि के मूलपाठ के निकट है । अपितु वह विमलमूरि के पउमचरिय के निकट है। पउमचरिय के समान ही इसमें भी देशावकासिक व्रत का अन्तर्भाव दिक्व्रत में मानकर उस रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए सलेखना को बारहवां शिक्षाक्त माना गया है । २६ कुन्दकुन्द ने भी इस परम्परा का अनुसरण किया है। किन्तु कुन्दकुन्द विमलसूरि से तो निश्चित ही परवर्ती हैं और सम्भवतः जटासिंहनन्दि से भी। अतः उनके द्वारा किया गया यह अनुसरण अस्वाभाविक भी नहीं है । स्मरण रहे कि कुन्द कुन्द ने सस्थावर के वर्गीकरण, चतुर्विध मोक्षमार्ग आदि के सम्बन्ध में भी आगमिक परम्परा का अनुसरण किया है । स्पष्ट है कि विमलसूरि के पउमचरिय का अनुसरण रविषेण, स्वयंभू आदि अनेक या पनीय आचार्यों ने किया है । अतः जटासिंहनन्दि के यापनीय होने की संभावना प्रबल प्रतीत होती है ।
९. जटासिंहनन्दि ने व रांगचरित के नवें सर्ग में कल्पवासी देवों के प्रकारों का जो विवरण प्रस्तुत किया है वह दिगम्बर परम्परा से भिन्न है। वैमानिक देवों के भेद को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में स्पष्ट रूप से मतभेद है । जहां श्वेताम्बर परम्परा वैमानिक देवों में १२ विभाग मानती है वहां दिगम्बर परम्परा उनके १६ विभाग मानती है । इस संदर्भ में जटा सिंहनन्दि स्पष्ट रूप से श्वेताम्बर या आगमिक परम्परा के निकट हैं । वे नवें सर्ग के द्वितीय श्लोक में स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि कल्पवासी देवों के बारह भेद हैं ।२८ पुनः इसी सर्ग के सातवें श्लोक से नवें श्लोक तक उत्तराध्ययन सूत्र के समान उन १२ देवलोकों के नाम भी गिनाते हैं ।२९ यहां वे स्पष्ट रूप से न केवल दिगम्बर परम्परा से भिन्न होते हैं बल्कि किसी सीमा तक यापनीयों से भिन्न प्रतीत होते हैं । यद्यपि स्मरण रखना होगा कि यापनीयों में प्रारम्भ में आगमों का अनुसरण करते हुए १२ भेद मानने की प्रवृत्ति रही होगी, किन्तु बाद में दिगम्बर परम्परा या अन्य किसी प्रभाव से उनमें १६ भेद मानने की परम्परा विकसित हुई होगी। तत्त्वार्थसूत्र के सर्वार्थ सिद्धि मान्य पाठ में तथा तिलोयपण्णत्ति में इन दोनों ही परम्पराओं के बीज देखे जाते हैं । तत्त्वार्थ सूत्र का सर्वार्थसिद्धि मान्य यापनीय पाट जहां देवों के प्रकारों की चर्चा करता है वहां वह १२ का निर्देश करता है किन्तु जहां वह उनके नामों का विवरण प्रस्तुत करता है तो वहां १६ नाम प्रस्तुत करता है । यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति में भी १२ और १६ दोनों प्रकार की मान्यताएं होने के स्पष्ट उल्लेख पाये जाए हैं। इससे स्पष्ट लगता है कि प्रारम्भ में आगमिक मान्यता का अनुसरण करते हुए यापनीयों में और यदि जटा सिंहनन्दि कूर्चक हैं तो कूर्चकों में भी कल्पवासी देवों के १२ प्रकार मानने की परम्परा रही होगी। आगे यापनीयों में १६ देवलोकों की मान्यता किसी अन्य परम्परा के प्रभाव से आयी होगी।
१०, वरांगचरित में वरांगकुमार की दीक्षा का विवरण देते हुए लिखा गया है कि-'श्रमण और आर्यिकाओं के समीर जाकर तथा उनका विनयोपचार (वन्दन) करके वैराग्ययुक्त वरांगकुमार ने एकांत में जा सुन्दर आभूषणों का त्याग किया तथा गुण, शील, तप एवं प्रबुद्ध तत्त्व रूपी सम्यक् श्रेष्ठ आभूषण तथा श्वेत शुभ्र वस्त्रों खण्ड १८, अंक २, (जुलाई-सित०, ९२)
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