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________________ पुस्तक समीक्षा १. मारवाड़ी व्यापारी-लेखक डॉ० गिरिजाशंकर शर्मा, अलखसागर, बीकानेर । प्रकाशक कृष्ण जनसेवी एण्ड कं०, १९८८, पृ० २०४, मूल्य १९५ रु० । ___ यह ग्रन्थ राजस्थान विश्वविद्यालय में सन् १९८० में इतिहास के शोध प्रबन्ध के रूप में पी-एच०डी० की उपाधि के लिए "बीकानेर में व्यापारी वर्ग की भूमिका (१८१८-१९४७ ई०)" शीर्षक के अन्तर्गत स्वीकृत हुआ था और आठ वर्ष की लंबी प्रतीक्षा के बाद भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के आर्थिक अनुदान से इसका प्रकाशन "मारवाड़ी व्यापारी" शीर्षक से संभव हो सका। यह ग्रन्थ राजस्थान के मारवाड़ी व्यापारियों के संदर्भ में विशेष रूप से बीकानेर राज्य के व्यापारी वर्ग की १८१८ से १९४७ के बीच की स्थिति के विभिन्न पहलुओं का प्रामाणिक सूचनापूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत करता है और विशेष रूप से उन भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं मनोवैज्ञानिक कारणों पर प्रकाश डालता है जिनकी वजह से बीकानेर व्यापारी अपना राज्य छोड़ कर जीविका की खोज में देश के कोने-कोने में जाकर बस गये तथा अपनी व्यापारिक प्रतिभा, धनसंचयी प्रवृत्ति और अध्यवसाय से भारत की अर्थव्यवस्था पर छा ही नहीं गये बल्कि इन गुणों के पर्याय बन गये । इसमें उन्हें बीकानेरी अनुत्पादक मरुभूमि, सामन्ती करों का बोझ व शोषण, बीकानेर के बाहर के व्यापारियों की प्रतियोगिता और अंग्रेजी सरकार की व्यापारिक और साम्राज्यवादी तिकड़मों का सामना कर अपना मार्ग बनाना पड़ा। फिर भी आश्चर्य की बात तो यह है कि ये मारवाड़ी बीकानेरी व्यापारी दूर-दराज के क्षेत्रों में बस जाने पर भी बीकानेर राज्य और वहां के निवासियों से बराबर संपर्क बनाये रहे। राज्य के शासकों को आर्थिक संकटों से उबारने, अकाल पीड़ितों को मदद करने स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा के प्रसार तथा उद्योग धन्धों के विकास में इन बीकानेरी व्यापारियों ने अपना बाहरी प्रदेशों से कमाया धन यथाशक्ति लगाया और तदनुसार यश अजित किया। किंतु इन बीकानेरी व्यापारियों की अर्थ-उपार्जन की गतिविधियों में सभी कुछ प्रशंसनीय नहीं था। वे मुख्य रूप से व्यापार में उनके हानि-लाभ के दृष्टिकोण से जुड़ी रहती थीं । उदाहरण के लिए १८१८ ई० में बीकानेर राज्य में जब अंग्रेजी प्रभुसत्ता स्थापित हो गई तो बीकानेर का व्यापारीवर्ग तुरन्त ही अपने आर्थिक स्वार्थों से प्रेरित होकर अंग्रेजी सरकार का पिट्ठ, बन गया और उसके वरद हस्त के नीचे खण्ड १८, अंक १ (अप्रैल-जून, ६२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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