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द्रव्यबंध होता है " मन में दूषित भावों का आगमन भावास्रव एवं मन में दूषित भावों का अस्तित्व भावबंध है । कषाय, जीव से कर्मों को चिपकाने में गोंद का काम करते हैं। बंधन की दशा में पुद्गल और जीव ( अपना अलग-अलग अस्तित्व रखते हुए) एक दूसरे में व्याप्त हो जाते । जैसे- शरीर के प्रत्येक भाग में चैतन्य व्याप्त है । मीमांसा, निरीश्वर सांख्य एवं बौद्ध के समान जैन विचारकों ने भी ईश्वर नामक किसी तत्त्व को कर्मफल का संरक्षकत्व नहीं दिया है ।" महावीर के अनुसार जैसे कुम्भकार दण्डादि उपकरणों के अभाव में घटादि नहीं बना सकता, उसी तरह ईश्वर कर्मादि साधनों के अभाव में शरीरादि का निर्माण नहीं कर सकता है । " कर्माभाव में कुछ न कर सकने से उसकी सत्ता व्यर्थ है। जीव द्वारा किए गए कर्म और उसके फल में किसी दूसरे का कोई हाथ नहीं होता है । कर्म करने की स्वतन्त्रता के साथ ही फलभोग का उत्तरदायित्व भी महत्त्वपूर्ण है ।
जैन मतानुसार जीव स्वयं अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता होता है | अद्वैत वेदान्त में जीव का बंधन मिथ्या या भ्रमरूप माना गया है । अतः अद्वैत वेदान्त की दृष्टि में जीव का कर्तृत्व और भोक्तृत्व भी भ्रम है, किंतु जैन दर्शन में जीव का बंधन मिथ्या न मानकर वास्तविक माना जाता है। न ही सांख्य के पुरुष के समान जैनसम्मत संसारी जीव अकर्ता और अभोक्ता होता हुआ अचेतन प्रकृति के जन्मादि बंधन को अपना बंधन समझता है । कारण एवं कार्यं कर्ता और भोक्ता का निश्चित संबंध होता है । इनके परस्पर अभिन्न होने से, जीव का पूर्णतः अकर्तृत्व असंगत है । राग और द्वेष जीव के धर्म हैं, अजीव के नहीं । सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष सर्वदा मुक्त हैं एवं उनका बंध कभी नहीं हो सकता है। प्रकृति का ही बंध और मोक्ष होता है ।" सांख्यसम्मत प्रकृति और पुरुष के पारस्परिक सम्बन्ध की आलोचना करते हुए डॉ० ए. एन. उपाध्ये लिखते हैं--" प्रश्न है कि यदि बंध नहीं होता है, तो मोक्ष की चर्चा किसलिए ? दोनों के यथार्थ संबंध के अभाव में, मिथ्या संबंध की कल्पना भी नहीं की जानी चाहिए ।' संक्षेप में बंधनों से वही छूट सकता है, जो वास्तव में बंधगत हो। इसलिए जैनाचार्यों का स्पष्ट मत है कि आत्मा अपने विभिन्न जन्मों का कर्ता है । कर्मों को कारण ( रागद्वेषादिकषाय ) सहित नष्ट करने एवं पूर्वकृत् कर्मफलों को भोग लेने के बाद ही आत्मा बंधमुक्त हो सकता है ।
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जीव भौतिक वस्तुओं से सर्वथा विपरीत होने के कारण अजीव द्रव्यों के बीच में स्थित होकर भी न उन्हें स्वीकारता और न नकारता है ।" वस्तुतः जैनसम्मत जीव द्रव्यकर्म का कर्ता न होकर भावकर्म का ही कर्ता है । द्रव्यकर्म अर्थात् कर्म पुद्गल द्रव्य होने से नित्य हैं, इसलिए जीव द्रव्यकर्म का कर्ता नहीं कहा गया है । मोहनीयादि कर्म करने से इन कर्मों के पुद्गल जीव की ओर आकर्षित हो जाते हैं । अन्य भारतीय दर्शनों में कर्म "पुद्गल" के रूप में नहीं माने गए हैं । अत: जैनों की तरह आस्रव और बंध की प्रक्रिया (सकवाय जीव द्वारा मन, वचन और शरीर से शुभाशुभ चेष्टायें करने पर कर्म-परमाणुओं का आत्मा से चिपकना ) अन्य कर्मवादियों ने स्वीकार नहीं की है ।
खंड १८, अंक १ ( अप्रैल-जून, ६२ )
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