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वाले), मोहनीय (आत्मा को मोहित करने वाले), आयुष्क (जीव का एक योनि, देहेन्द्रियादि से निश्चित अवधि तक सम्बन्ध कराने वाले), नाम, गोत्र एवं अन्तराय". (लाभ एवं सुखादि की प्राप्ति में विघ्न डालने वाले) कर्म । इन कर्मो के भी अनेक भेदोपभेद हैं । ज्ञानावरण कर्म पांच प्रकार का होता है - मति ज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण एवं केवल ज्ञानावरण। 'दर्शनावरणीय कर्म" नो प्रकार से "दर्शन" का आवरण करता है-चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रावेदनीय, निद्रानिद्रावेदनीय, प्रचलावेदनीय, प्रचलाप्रचलावेदनीय एवं स्त्यानगृहद्धिवेदनीय ।१४ “सद्वेद्य' एवं "असद्वेद्य" के भेद से वेदनीय कर्म दो प्रकार का है।५ मोहनीय कर्म के भी दो भेद हैं- "दर्शनमौहनीय" एवं "चारित्रमोहनीय।" दर्शनमोहनीय के तीन अवान्सर भेद हं.ते हैं-"मिथ्यात्ववेदनीय", "सम्यक्त्ववेदनीय" और "सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय ।" इसी तरह "चारित्रमोहनीय" के भी दो भेद हैं- "कषायवेदनीय" एवं "नोकषायवेदनीय।" "कषायवेदनीय चारित्रमोहनीय" कर्म के सोलह भेद होते हैं । क्रोध, मान, माया एवं लोभ (चारों कषायों) के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरणकषाय और संज्वलनकषाय के (चार-चार भेदों से) कारण सोलह भेद कहे गए हैं। जैसे-अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबंधी मान, अनन्तानुबंधी माया और अनन्तानुबंधी लोभ । अप्रत्याख्यान आदि के भी चार-चार प्रकार होते हैं। "नोकषायवेदनीय कर्म' नौ प्रकार का होता है - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसकवेद । इस प्रकार मोहनीय कर्म के अट्ठाईस भेद होते हैं१६-तीन दर्शनमोहनीय, सोलह कषायवेदनीय एवं नो नोकषायवेदनीय । आयुष्कर्म के चार भेद हैं-नारकायुष्कर्म, तैयंग्योनायुष्कर्म, मानुषायुष्कर्म और देवायुष्कर्म । जैन-दर्शन में चतुर्विध गतियों के कारण आयु के भी चार भेद बताए गए हैं। मूलत: नामकर्म बयालीस प्रकार का होता है-गति, जाति, शरीर, अङ्गोपाङ्ग, निर्माण, बंधन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, विहायोगति, प्रत्येक शरीर, साधारणशरीर, त्रस, स्थावर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, आदेय, अनादेय, यश, अयश, और तीर्थङ्करनामकर्म । इन नामकर्मों के भी अनेक भेदोपभेद हैं। समष्टि रूप से कर्मों का परिणाम शरीर एवं सम्पूर्ण जीवन है, किंतु व्यष्टि रूप में शरीर का विशेष-विशेष धर्म, विशेष-विशेष कर्म का फल है। जैसे-गोत्र कर्म गोत्र का, आयुष्कर्म आयु का, सुभग कर्म सौभाग्य का एवं दुर्भग कर्म दुर्भाग्य का निश्चय करता है। इसी तरह सभी कर्म अपने नाम के अनुरूप ही फलित होते हैं।
__ आर्हत दर्शन में कर्मबंध की प्रक्रिया अन्य दर्शनों के समान स्थल रूप से ही नहीं अपितु सूक्ष्म रूप से भी बतायी गयी है । वे भाव और द्रव्य दोनों दृष्टियों से कर्म आस्रव (कर्मपुद्गलों का जीव की ओर प्रवाह) एवं बंध का वर्णन करते हैं। कार्यसिद्धि के लिए विचार का उठना भावकर्म है । द्रव्यकर्म भावों और संकल्पों का स्थूल रूप होता है। इसी तरह भाववर्म का भावस्राव और भावबंध एवं द्रव्यकर्म का द्रव्यास्रव एवं
तुलसी प्रज्ञा
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