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________________ रमणीय अनुप्रासात्मक बिम्ब से ही होता है "श्रद्धे ! मुग्धान् प्रणयसि शिशून् दुग्धदिग्धास्यवन्तान्, भद्रानज्ञान् वचसि निरतांस्तर्कबाणैरदिग्धान् ।"" उपर्युक्त श्लोक में अनुप्रासात्मक पदों द्वारा श्रद्धा का मनोरम चित्र उपस्थापित किया गया है । 'दुग्ध' और 'दिग्ध' शब्द अपना अर्थ प्रतिपादित तो करते ही हैं; साथ ही कोमल शब्द बिम्ब भी अंकित कर जाते हैं । जब व्यक्ति की चिर प्रतीक्षित अभिलाषा पूर्ण होते-होते खण्डित हो जाती है तो वेदनाभिभूत हृदय से दुःख की लहरियां सिसकियों के माध्यम से अभिव्यक्त होने लगती हैं । 'ध्येयं सम्यक् क्वचिदपि न वा न्यून -सज्जा भवेत, घोषाः पुष्टा बहुलतुमुलास्ते पुरश्चारिणः स्युः " बाह ! कैसा मनोरम बिम्ब - सिसकियों का ! आंसुओं के आगे-आगे चलने वाली निरीहा बाला की सिसकियां सामान्य जन को क्या, भगवान् को भी करुणाभिभूत करने का सामर्थ्यं रखती हैं । आंसुओं के प्रति संबोधित चन्दन बाला के शब्दों का एक मनोरम बिम्बआंसुओं ! तुम जल्दी जाओ ! देखो ! वह तपस्वी जा रहा है, जो मुझे साक्षात् मिला था । वह संचित सुकृत् द्वारा ही मिला करता है। आंसुओं । तुम्हें पाकर अकेला व्यक्ति भी साथ एवं विपत्ति के भार से मुक्ति का अनुभव करता है, जहां कोई शरण नहीं वहां तुम्हीं सहायक बनते हो ।' आंसुओं के प्रति कहे गए विरह-व्यथिता के ये शब्द हृदय पटल पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं तथा इस मनोवैज्ञानिक तथ्य का उद्घाटन भी कर जाते हैं कि विरहिणियों के मनोविनोद का एक साधन आंसू भी हैं । अश्रुवीणा की एक महती विशिष्टता है- 'भाव या अमूर्त पदार्थ का मूत्तं चित्रण', जो इसे रूपकात्मक प्रतीक-काव्य की उदात्त परम्परा में प्रतिष्ठित करता है । 'शब्द' को १३ श्लोकों में मूत्तं पात्र के रूप में चित्रित किया गया है, तथा इसके विभिन्न गुणों पर भी प्रकाश डाला गया है, जैसे- ' शब्द पुद्गल - स्कन्ध ( ३३ ), शब्द दृश्य और श्रव्य दोनों हैं (३४), उनमें समस्त वातावरण को देने की शक्ति निहित है । ( ३५) शब्द आकाश में फैले हुए पुद्गल - स्कन्धों के से आगे बढ़ते हैं (३६) आदि । समुत्थ हैं, २. स्पर्श बिम्ब – त्वगेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य विषयों को स्पर्शं बिम्ब कहते हैं । स्पर्शं बिम्ब में शीतलता, उष्णता, कोमलता, कठोरता आदि का विशेष महत्त्व है । अश्रुवीणा में इसकी अल्प मात्रा है । झकझोर सहयोग स्निग्धता - श्रद्धा मय जीविता नारियों के आसूं अत्यन्त स्निग्ध होते हैं । चन्दनबाला के आसुओं की स्निग्धता का बिम्ब - " युष्मत् स्नेह - प्रवहणमिदं संविशेत्स्यन्त एव । १० खण्ड १८, अंक १ ( अप्रैल-जून, ९२ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only ४३ www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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