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________________ तत्त्वार्थ सूत्र और कसाय पाहुड सुत्त के सन्दर्भ में गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास प्रो० सागरमल जैन (मुझे लगता है कि कसायपाहुड, तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके भाष्य के काल में आध्यात्मिक-विशुद्धि या कर्म-विशुद्धि का जो क्रम निर्धारित हो चुका था, वही आगे चलकर गुणस्थान सिद्धांत के रूप में अस्तित्व में आया । यदि कसायपाहुड और तत्त्वार्थ चौथी शती या उसके पूर्व की रचनायें हैं तो हमें यह मानना होगा कि गुणस्थान की, सुव्यवस्थित अवधारणा चौथी और पांचवीं शती के बीच ही कभी निर्मित हुई है, क्योंकि लगभग छठी शती से सभी जैन विचारक गुणस्थान सिद्धांत की चर्चा करते प्रतीत होते हैं, इसका एक फलितार्थ यह भी है कि जो कृतियां गुणस्थान की चर्चा करती हैं वे सभी लगभग पांचवीं शती के पश्चात् की हैं। यह बात भिन्न है कि तत्त्वार्थसूत्र और कसायपाहुड को प्रथम-द्वितीय शताब्दी का मानकर इन ग्रन्थों का काल तीसरी-चौथी शती माना जा सकता है। किन्तु इतना निश्चित है कि षट्खण्डागम, भगवती आराधना एवं मूलाचार के कर्ता तथा आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वाति से परवर्ती ही हैं, पूर्ववर्ती कदापि नहीं। —लेखक) व्यक्ति के आध्यात्मिक शुद्धि के विभिन्न स्तरों का निर्धारण करने के लिए जैन दर्शन में गुणस्थान की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया है । व्यक्ति विशेष के आध्यात्मिक विकास का मूल्यांकन इसी अवधारणा के आधार पर होता है। यद्यपि गुणस्थान की अवधारणा जैन धर्म की एक प्रमुख अवधारणा है, तथापि प्राचीन स्तर के जैन आगमों यथा--आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशवकालिक, भगवती आदि में इसका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। श्वेताम्बर-परम्परा में सर्वप्रथम समवायांग में जीवस्थान के नाम से इसका उल्लेख हुआ है । समवायांग में यद्यपि १४ गुणस्थानों के नामों का निर्देश हुआ है, किन्तु उन्हें गुणस्थान न कहकर जीवस्थान (जीवठाण) कहा गया है ।' समवायांग के पश्चात् श्वेताम्बर-परम्परा में गुणस्थानों के १४ नामों का निर्देश आवश्यक नियुक्ति में उपलब्ध है, किन्तु वहां भी नामों का निर्देश होते हुए भी उन्हें गुणस्थान (गुणठाण) नहीं कहा गया है । यहां यह भी स्मरणीय है कि मूल आवश्यक सूत्र जिसकी नियुक्ति में ये गाथाएं आई हैं-मात्र चवदह भूतग्राम हैं, इतना बताती हैं, नियुक्ति उन १४ भूतग्रामों का विवरण देती है। फिर उसमें इन १४ गुणस्थानों का विवरण भी दिया गया है किन्तु ये गाथाएं प्रक्षिप्त लगती हैं, क्योंकि हरिभद्र (८वीं शती) खंड १८, अंक १ (अप्रैल-जून, ६२) १५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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