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________________ भावओ'-कहकर मध्य में मंगल किया गया है । आवश्यक नियुक्ति (गाथा १०२७) में लिखा मिलता है कि पंच-परमेष्ठियों को नमस्कार कर सामायिक करना चाहिए। यह पंच नमस्कार सामायिक का ही एक अंग है। आचार्य भद्रबाहु के अनुसार नंदी और अनुयोगद्वार को जानकर तथा पंचमंगल को नमस्कार करके सूत्र का आरम्भ किया जाता है । यह भी कहा जाता है कि भगवान महावीर दीक्षित हुए तो उन्होंने सिद्धों को नमस्कार किया। दूसरी समस्या परमेष्ठिपदों की संख्या और क्रम की है । खारवेलप्रशस्ति में केवल दो पद 'अहंत' और 'सिद्ध' हैं और 'सिद्ध पद' के साथ 'सव्व' विशेषण लगा है। पश्चात्कालीन शिलालेखों में भी अर्हन्तों और सिद्धों को नमस्कार लिखा मिलता है किन्तु पंच परमेष्ठि पदों का एकत्र उल्लेख अभी तक कहीं नहीं मिला। नमस्कार मंत्र में पदों के पूर्वानुपूर्वी क्रम की पुष्टि के लिए नियुक्तिकार ने तर्क दिया है कि सिद्ध, अर्हत् के उपदेश से ही जाने जाते हैं । अतः अर्हत् हमारे अधिक निकट हैं । आचार्य मलयगिरि ने भी अहंत और सिद्ध में आत्मविकास की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं माना । आत्म-विकास में बाधा डालने वाले चार घात्य कर्म हैं। उनके क्षीण होने पर आत्म-विकास हो जाता है। अर्हन्तों में भवोपग्राही कर्म शेष रहता है जिससे वे शरीर धारण किए रहते हैं, अन्यथा अर्हत् और सिद्ध समान होते हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु (साहू या मुनि) मुमुक्षुसमाज में तीन उपाधियां हैं जो परिषद्कल्प हैं । अर्हत् अथवा सिद्ध इसके नायक हैं-ऐसा मान लें तो परमेष्ठिपदों में संख्या का प्रश्न महत्त्वपूर्ण नहीं रहता और यह अर्हत् अथवा सिद्ध पद पाने के सोपान बन जाते हैं । फिर भी पांच परमेष्ठिपदों के सम्बन्ध में निम्न तथ्य विचारणीय हैं'१. जामनगर से प्रकाशित भगवती सूत्र की संस्कृत टीका में 'णमोलोए सव्वसाहूण के स्थान पर णमो सव्वसाहूणं' पाठ है और टीकाकार ने क्वचित् पाठः कहकर 'णमो लोए सव्व साहूणं, को पाठ-भेद बताया है। २. अभिधान राजेन्द्र (पृ० १८३५) में उक्त दोनों ही पाठ न होकर 'णमोबंभीए लिवीए' पाठ दिया है । वहां पूरा मन्त्र इस प्रकार है "णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो बंभीए लिवीए ॥ ३. खारवेल-प्रशस्ति में 'नमो सव्व सिधान' पद में सिद्धों के साथ 'सव्व' विशेषण है जो पांच परमेष्ठि पदों में सिद्धों से हटकर साहूणं के साथ जुड़ गया है। ४. यह भी विचारणीय है कि पांच परमेष्ठिपदों में केवल “णमो सिद्धाणं" में पांच अक्षर हैं । बाकी तीन पदों में सात-सात अक्षर हैं और अन्तिम ‘णमोलोए सव्व साहूणं' में नौ अक्षर हो गए हैं । ५. आवश्यक नियुक्ति में पंच परमेष्ठिपदों के सूत्र की वैधता पर शंका की गई है कि सूत्र संक्षिप्त होता है अथवा विस्तृत । संक्षिप्त जैसे सामायिक सूत्र और विस्तृत जैसे चौदह पूर्व; किन्तु यह सूत्र न तो संक्षिप्त है न विस्तृत ही । संक्षिप्त हो तो सिद्ध और साधु-दो को ही नमस्कार पर्याप्त होता क्योंकि मुक्ततुल्य अहंत सिद्ध खण्ड १८, अंक १ (अप्रैल-जून, ६२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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