________________
'दुनियां में अहिंसा ही, सुख स्वर्ग दिखाती है नकों के महादुःख से, प्राणी को बचाती है ।
(पार्श्वनाथ, पृ० २६३) अहिंसा का पारमार्थिक लक्ष्य आत्मशुद्धि है और उसका मार्ग कषाय-विजिगीषा है । यह सभी व्रतों का मूल है । रमेश चन्द्रशास्त्री ने इसी मन्तव्य को अपने प्रबन्ध काव्य 'देवपुरुष गांधी' में कहा है
काम-क्रोध-भय-लोभ-मोह की, मनोवृत्ति का त्याग सर्वदा । शुद्ध अहिंसा कहलाती है, वही मनुज को होती फलदा । सभी व्रतों का मूल अहिंसा, यही महावत कहलाती है।
(देवपुरुष गांधी, पृ० २०१) जैनाचार का दूसरा महत्त्वपूर्ण महाव्रत है, सत्य । मन से सत्य सोचना, वाणी से सत्य बोलना और काय से सत्य का आचरण करना और सूक्ष्म असत्य का भी कभी प्रयोग न करना सत्य महाव्रत है। रमेशचन्द्र शास्त्री ने सत्य की महिमा का गुणगान करते हुए उसे विश्व में एक महान् मन्त्र बतलाया है
'सत्य है जग में मन्त्र महान् । सत्य-सुधा को पीकर मानव बनता देव महान् ॥
X
.
अणु-अणु में है सत्य तत्व का व्यापक विपुल प्रसार । सत्य-शक्ति का अमित स्रोत है, खाता कभी न हार ॥
(देवपुरुष गांधी, पृ० ५२) सत्य से ही यश एवं कीत्ति अर्जित होती है । श्रमण के लिए सत्य महाव्रत होता है वहां श्रावक के लिए यह अणुव्रत के रूप में होता है । डॉ० छैल बिहारी गुप्त ने सत्यअणुव्रत के स्वरूप को उद्घाटित करते हुए कहा है
सत्य अणुक्त नाम है पूजा, सत्य ही की हो जहां पूजा, झूठ निन्दा वचन का हो प्याग, झूठ को समझे कि विषधर नाग, सत्य से यश धवल जाता फैल, कला-विद्या से सदा हो खेल ।
(तीर्थकर महावीर, पृ० २७०) जैनाचार का तीसरा महत्त्वपूर्ण व्रत है अस्तेय । स्वामी की इच्छा या आज्ञा के बिना किसी वस्तु को ग्रहण करना या अपने अधिकार में करना अदत्तादान है । पंडित १६४
तुलसी. प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org