SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नक्षत्रों की विभागात्मक पद्धति भी नहीं थी। सर्व प्रथम मैञ्युपनिषद् में ये विभाग दष्टिगत होते हैं—'सूर्यो योनिः कालस्य । तस्य तद्रूपं । यन्निमेषादिकालात्संभृतं द्वादशात्मकं वत्सरं। मघाद्यं श्रविष्ठाधं । आग्नेय क्रमेण । उत्क्रमेण सार्पाद्यं श्रविष्ठार्धातं सौम्यं'-प्रपाठक-६ । आगे फिर कहा है-'नक्षत्राणि वसवः पुरस्तादुद्यति तपंति वर्षति स्तुवंति पुनविशति अन्तर विवरेण ईक्षांत' (प्रपाठक-६)। इससे स्पष्ट है कि धनिष्ठा नक्षत्र से गणना होती थी। महर्षि लगध ने कहा भी है प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्यचंद्रमसावुदक् । सापर्धेि दक्षिणार्कस्तु माधश्रावणयोः सदा ॥ विक्रम पूर्व छठे शतक में वर्तमान रहे वृद्ध गर्ग ने भी इस कथन की पुष्टि की है कालज्ञानं महत्पुण्यं कालश्चादित्य उच्यते । स च माघस्य शुक्लादो सोमवासवयोः सह ॥ सहोदयं श्रविष्ठाभिः प्रस्थायान्हामुदङ मुख । कि माघ शुक्ल प्रतिपदा को आदित्य धनिष्ठा योगतारा और चन्द्रमा के साथ श्रविष्ठा में उदङ मुख होता है। ११. शतपथ ब्राह्मण (२.१.२)। विशेष विवरण के लिए बाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड-अध्याय-२२ में द्रुमकुल्य विवरण देखें (राजस्थानी मरुप्रदेश का इतिवृत्ता त्मक विवेचन, बिसाऊ सन् १९६१ पृ० २१-२२ पर उद्धृत)। १२. जैन काल गणना में २८ नक्षत्रों की मान्यता है। ठाणम् (६.७४) में १५ मुहूर्त का एक भद्रा नक्षत्र भी बताया गया है। अभिजित् १६ घटियों का माना जाता है। अभिजित् का कालमान २७०० वर्षों में ७२ वर्ष के तुल्य होता है इसलिए प्रत्येक चौथे शतक में १८ वर्ष बढ़ाने की भी परम्परा रही है। ठाणम् २।३२३ और ४१३३२ के अनुसार नक्षत्र गणना कृत्तिका से है किन्तु ७।१४६-४६ के अनुसार उसे अभिजित् से करना चाहिए । १३. (i) अङ्गिरसो न: पितरः नवग्वा. — ऋग्वेद, १०.१४.६ (ii) तमुन: पूर्वे पितरो नवग्वाः सप्त विप्रासः । ---ऋग्वेद, ६.२२.२ (iii) ते दशग्वाः प्रथमा यज्ञमूहिरे ---ऋग्वेद, २.३४.१२ (iv) येन दश मासो नवग्वाः । यया तरन् दशमासो नवग्वा: -ऋग्वेद, ५.४५.७ (v) अथातो यज्ञक्रमा-अग्न्याधेयमग्नाध्येयात् पूर्णाहुतिः पूर्णाहुतेरग्निहोत्रमग्नि___ होत्राद् दर्शपूर्णमासी दशपूर्णमासाभ्यामाग्रयणमाग्रयणाच् चतुर्मास्यानि चातु • तुलसी प्रज्ञा १६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524569
Book TitleTulsi Prajna 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy