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________________ of years of the Hill cycle (Pahari Samyat) upto the present date. Thus the present 1885 of the christian Era, is the Kaliyagn 4960 and 35 of the 60th Hill cycle or exactly, 25 years short of the number of Kali yuga years.' -Cunningham, P-12 ५. उस राजा (तस्य राज्ञः) से महाराजा युधिष्ठिर का ग्रहण करें तो अभिप्राय यह होगा कि वृद्ध गर्ग के समय तक राजा युधिष्ठिर के राज्य को २५२६ वर्ष बीत गए । देखें-'शक-साका', बीकानेर, सं० २०४८ का परिशिष्ट-११० ४३ 6, 'The Rishis had completed three revolutions less 25 years in the Dwapara-yuga before the Kaliyuga began. -Cunningram, P-12 7. Pargiter's text (DKA), 15-20. ८. वायुपुराण (५७.१७-१८); ब्रह्माण्ड पुराण (२.२६.१७-१८); मत्स्यपुराण (१४१.१३) और लिंगपुराण (४१.१८)। ६. (i) वायुपुराण (२३.२२६) के अनुसार वैवस्वत मनु से कृष्ण पर्यन्त सैंकड़ों राजा हुए हैं । अकेले सूर्यवंश के इतिहास में १०७ राजाओं के नाम मिलते हैं। उस वंश के राजा ककुत्स्थ से कौक्ज्द (Kauzda) संवत्सर चला था जो राजा देवळ के समय (विक्रम पूर्व ५४३ में) ८६४० वर्ष पूरे होने पर प्रयोग शून्य किया गया और माघ के चन्द्र दर्शन रविवार से नया ऐतज्मा संवत्सर चालू हुआ (मल्लकिंकर, भाग-२ पृ० १३४)। (ii) चम्पा से मिले राजा सत्य वर्मा के लेख सं० ७२० में लिखा है कि राजा सगर (सूर्यवंश के ४४वें राजा) ऐतज्मा संवत्सर से ५१६१ वर्ष पूर्व हुए-"पंच सहस्र नवशतैकादशे विगत कलिकलङ्क द्वापरवर्षे श्री विचित्रसगर संस्थापितश्श्रीमुख लिङ्गदेवः । तस्य सकल कोष्ठागार रजत रत्नहेमकदवकलशभृङ्गाररूक्म दण्ड सितातपत्रचामर हैमघटादि परिभोगा वर्द्धमाना भवन्ति स्म । ततश्चिरकाल कलियुग दोषाद्देशान्तर प्लवागत पापनर भुग्गण संहृतेषु प्रतिमा परिभोग भूषणेषु शून्योऽभवत् । पुनरद्यापि तत्पुण्य कीर्त्य विनाशाय श्री सत्यवर्म नरपति विचित्र सगर मूत्ति रिव माधवसप्त शुक्लपक्षे यथापुरा श्री भगवतीश्वर मुखलिङ्ग मतितिष्ठयत् ।" अर्थात् देवळ शक (ऐतज्मा संवत्सर) ७२० से ५६११ वर्ष पूर्व राजा सगर ने जो भव्यमूर्ति स्थापित की थी वैसी ही शोभापूर्वक नई मूत्ति राजा सत्य वर्मा ने पुन: प्रतिष्ठापित कर दी। तदनुसार सगर काल=५६११-७२०+५४३५७३४ विक्रम पूर्व अथवा ५७३४.-३०४३= २६६१ वर्ष महाभारत (कलि) पूर्व । १०. हमारी समझ में २७ नक्षत्रों का निश्चय महर्षि लगध (विक्रम पूर्व १४वीं सदी) ने किया। इससे पूर्व दो प्रकार की स्वतंत्र गणनाएं थीं-- 'तेषां च सर्वेषां नक्षत्राणां कर्मसु कृत्तिकाः प्रथम आचक्षते । श्रविष्ठा तु संख्यायाः ।" संभवतः वैदिककाल में खण्ड १७, अंक ४ (जनवरी-मार्च, ६२) १५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524569
Book TitleTulsi Prajna 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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