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________________ सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वी दृश्येते उदितो निशि । तयोर्मध्ये तु नक्षत्रं दृश्यते यत्समं दिवि ॥ तेन सप्तर्षयो युक्ता ज्ञेया व्योम्नि शतं समाः । नक्षत्राणां ऋषीणां च योगस्यैतन्निदर्शनम् ॥ अर्थात् सप्तर्षि एक, एक नक्षत्र में सौ, सौ वर्ष रहते हैं और उनका पूरा पर्याय सात दिव्य वर्ष और छह दिव्य माहों का होता है जो मानव वर्षों में ७३ x ३६० = २५२०+१८०=२७०० वर्षों के तुल्य होता है।' पाजिटर के इस दावे के विरुद्ध पुराणों में सप्तर्षि-संवत्सर ३०३० वर्षों का बताया गया है और तीन सप्तर्षि-संवत्सरों के बीतने पर एक क्रौंच (ध्रौव) संवत्सर पूरा होने का उल्लेख मिलता है त्रीणिवर्ष सहस्राणि मानुषेण प्रमाणतः । त्रिंशद्यानि तु वर्षाणि मतः सप्तर्षि वत्सरः ।। नव यानि सहस्राणि वर्षाणां मानुषाणि तु। अन्यानि नवतिश्चैव क्रौंच संवत्सरः स्मृतः ॥ इस संबंध में विष्णु पुराण में लिखा है कि स्वायंभुव मनुपुत्र उत्तानपाद ने उत्कृष्ट तपश्चर्या से जब सर्वोच्च स्थान (निर्वाणपद) प्राप्त किया और उसी समय कोंचसंवत्सर (तीन सप्तर्षि-संवत्सरों की पूर्ति पर) पूरा हुआ तो उस संवत्सर को ध्रौवसंवत्सर नाम से अभिसंज्ञित कर दिया गया। दुर्भाग्य से आज वैवस्वत मनु से पूर्व की वंशावली और उसका इतिवृत्त लुप्त हो गया है। फिर भी कतिपय तदाभास मिलते हैं। जैसे वायुपुराणकार लिखता अष्टाविंशति र्ये कल्पा नामतः परिकीत्तिताः । तेषां पुरस्ताद्वक्ष्यामि कल्पसंख्या यथाक्रमम् ॥ कि भू, भुव, तपस, भव, रम्भ, ऋतुकल्प, ऋतु, वह्नि, हव्यवाहन, सावित्र्य, भुवन (१), उशिक, कुशिक, गन्धर्व, ऋषभ, षडज, मार्जालीय, मध्यम, वैराजक, निषाद, पंचम, मेघवाहन, चिंतक, आकूति, विज्ञाति, मनस, भाव और बृहत्--ये २८ कल्प बीत चुके हैं और २८ कल्पों के २८ सहस्र वर्षों में १२ संग्राम हुए हैं जो क्रमशः नारसिंह, वाराह, वामन, अमृतमंथन, सुघोर, आडीवक, त्रैपुर, अंधकार, ध्वज, वात, हलाहल और कोलाहल नाम से याद किये जाते हैं (वायु पुराण ६७.७२-७७) । विष्णुपुराणकार (४.१.७०) कहता है-“सांप्रतं महीतले अष्टाविंशतितम मनोश्चतुर्युगमतीतप्रायं वर्तते । आसन्नो हि कलिः"-कि वर्तमान में २८वां चतुर्युग (कल्प) समाप्त प्रायः हो रहा है और भविष्य पुराण (प्रतिसर्ग, ३.३.३४) में लिखा है कि २८वें कल्प के अन्त में ही कुरुक्षेत्र संग्राम हुआ। अर्थात् कांगड़ा के पंडितों ने द्वापर समाप्ति पर जिस ध्रौव संवत्सर के बीतने में २५ वर्ष कम बताए वह क्रौंच-संवत्सर, उत्तानपाद ध्रुव के नाम पर अभिसंज्ञित संवत्सर ही था। १८० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524569
Book TitleTulsi Prajna 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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