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________________ कहाण - अट्टगं में आठों कथाएं बहुत रोचक और शिक्षाप्रद हैं और विश्व विद्यालयों के पाठ्यक्रम में रखने योग्य हैं । सेतुबंध महाकाव्य, काव्य की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट है । इसे प्रवरसेन की कृति मानें अथवा कालिदास की ? यह प्रश्न यहां अधिक विवेचनीय नहीं है फिर भी संपादकों ने भूमिका में इस विषयक सटीक टिप्पणी की है और इसे प्रवरसेन की कृति होने के पक्ष में प्रमाण दिए हैं । लीलावई - कहा के लेखक महाकवि कोऊहल हैं और इस कथा ने परवर्ती कवियों को काफी प्रभावित किया है । आशा है, प्राच्य भारती प्रकाशन, इसी प्रकार अन्य प्रकाशन भी करती रहेगी । - परमेश्वर सोलंकी ६. प्रवचन - पाथेय, भाग-८ । प्रथम संस्करण, सन् १६८६ । संपादक - मुनि धर्मरूचि । मूल्य - सोलह रूपये । पृष्ठ- २६१ + ११ । प्रकाशक – जैन विश्व भारती, लाडनूं । यह प्रवचन -पाथेय आचार्य श्री तुलसी के गंगाशहर - प्रवास, सन् १६७८ में दिये प्रवचनों का संग्रह है । संपादक मुनि धर्मरूचि ने लिखा है- " मैंने साक्षात् देखा है कम्यूनिष्ट एवं नास्तिकों को सहसा आस्तिक बनते हुए । मैंने देखा है, धर्म को रूढ़ि और दकियानूसी विचार समझने वालों द्वारा उसे जीवन की शांति और आनंद के लिए एक अनिवार्य अपेक्षा एवं निर्विकल्प साधन के रूप में स्वीकार किए जाते हुए । देखा है मैंने वर्षों से पीई जाने वाली चिल्मों को फोड़ी जाते हुए, बीड़ी-सिगरेट के बंडलों व पॉकेटों फेंको के जाते हुए। मैंने देखा है, सवर्ण हिन्दुओं द्वारा अस्पृश्यता को मानव जाति का कलंक मान उसे सदा सदा के लिए विदाकर हरिजन भाई को सगे भाई की तरह गले लगाए जाते हुए ।" - उनकी इस साक्षी पर कतिपय पाठक शंकाए उपस्थित कर सकते हैं किन्तु मुनि धर्मरूचि के इस कथन में सचाई है कि - " प्रवचन में मात्र आचार्य श्री के शब्द ही भाषायित नहीं होते, अपितु उनका स्वयं का जीवन बोलता है ।" - १४, प्रस्तुत प्रवचन - पाथेय में एक विशेष बात और भी है । इसमें आचार्य श्री की कृति - "जैन सिद्धान्त दीपिका" के प्रथम दोनों प्रकाशों के कतिपय सूत्रों की रोचक व्याख्या प्रस्तुत हो गई है । प्रथम प्रकाश के सूत्र - ४, ७, ८, १६, १७ आदि और द्वितीय प्रकाश के सूत्र २, ८, २३, ३२, ३३, ३५, ४१, ४२ आदि पर यहां अनेकों प्रवचनों में हृदयग्राही विवेचन हुआ है। वैशिष्ठ्य यह है कि सभी प्रवचन सादा, सरल भाषा में कथोपकथन की तरह लिखे हुए हैं । उनका उत्तम पुरुष में होना संपादन की दूसरी विशेषता है । आचार्यश्री के प्रवचनों में जो आकर्षण होता है, संपादक ने उसे ज्यों का त्यों बनाए रखा है, इसलिए जो व्यक्ति आचार्यश्री के प्रवचनों को रूबरू होकर सुनने से वंचित रहते हैं उन्हें इस पाथेय से निःसंदेह लाभ होगा । प्रस्तुति के लिए संस्था के मंत्री श्री श्रीचंद बैंगानी विशेष रूप से साधुवाद के पात्र हैं । प्रकाशन - मुद्रण की सुरुचिपूर्ण - परमेश्वर सोलंकी तुलसी प्रज्ञा १७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524568
Book TitleTulsi Prajna 1991 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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