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७. मुनिमनोरञ्जानाशीतिः । प्रथम संस्करण, सन् १९८६, मूल्य–३/- रुपये, पृष्ठ संख्या-३६ । लेखक-महाकवि श्री भूरामलजी (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी)। हिन्दी भाषान्तरकार--डॉ. पं० पन्नालालजी 'वसन्त' साहित्याचार्य, सागर । प्रकाशकविद्यासागर साहित्य संस्थान, श्री अतिशय क्षेत्र, पनागर, जबलपुर (म. प्र.)।
प्रस्तुत ग्रंथ में मुनियों के मनोरंजनार्थ संस्कृत भाषा निबद्ध इक्यासी पद्य हैं। हिन्दी भाषान्त रकार ने संक्षिप्त परिचय देकर पद्यों का विशद हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया है और अन्तिम दो पृष्ठों पर श्लोकानुक्रमणिका भी दे दी है।
ग्रन्थकार की मंगल-भावना यह थी कि 'मनुजो मानवो भूयाद् भारतः प्रतिभारतः' कि मनुष्य, मनुष्य बनें और भारत सदसद्-विवेक बुद्धि में लीन देश हो। इससे प्रतीत होता है कि वह प्रत्येक श्लोक के साथ विस्तृत भाष्य में मूलाचार आदि ग्रन्थों का नवनीत प्रचुर मात्रा में शामिल करना चाहते थे। इसी दृष्टि से उन्होंने इस कृति को ग्रंथ कहा है। किन्तु संभवतः उनका विचार पूरा नहीं हो सका।
श्लोकों की रचना प्रौढ़ संस्कृत भाषा में की गयी है। संस्कृत न जानने वाले इससे लाभ नहीं उठा सकते थे। इसी कठिनाई को दूर करने के लिए जैन समाज के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० पं० पन्नालालजी 'वसन्त' ने इस कृति का हृदयग्राही हिंदी रूपांतर कर दिया है।
यह ग्रन्थ मुनियों, आर्यिकाओं और जिज्ञासु स्वाध्याय प्रेमियों के लिए बार-बार पढ़ने योग्य है। ऐसी कृति के प्रकाशन के लिए अनुवादक और प्रकाशक दोनों ही अभिनन्दनीय है।
-अमृतलाल शास्त्री ८. प्राच्य भारती प्रकाशन-कहाणय-अट्टगं (प्राकृत गद्य संग्रह), सेतुबन्धमहाकाव्य (प्रथम दो आश्वास) और लीलावई-कहा (छात्रोपयोगी संस्करण) । संपादक ---डॉ० राजाराम जैन, डॉ० चन्द्रदेव राय और डॉ० (श्रीमती) विद्यावती जैन । सन् १९८६ और १६६० । मूल्य क्रमशः १६/- रुपये ; १५/- रुपये और २०/- रुपये ।
डॉ० राजाराम और डॉ० (श्रीमती) विद्यावती जैन मगध विश्वविद्यालय के कॉलेजों में सेवारत हैं। डॉ० चन्द्रदेव भी डॉ. राजाराम विभागाध्यक्ष के साथ संस्कृतप्राकृत विभाग में ही रीडर हैं । तीनों विद्वानों ने मिलकर मगध, अंग-चम्पा एवं मालवा की प्राच्य संस्कृति से संबंधित आठ प्राकृत कथा, सेतुबंध महाकाव्य के दो आश्वास और नौंवी सदी की महाराष्ट्री प्राकृत में लिखी प्रेम कहानी लीलावई-कहा का छात्रोपयोगी संस्करण तैयार किया है और प्राच्य भारती प्रकाशन, महाजन टोली नं० २, आरा [विहार] से श्री रत्नासागर ने उन्हें प्रकाशित किया है।
प्राकृत भाषाओं का अध्ययन अनेकों विश्वविद्यालयों में हो रहा है किन्तु प्रथम तो अद्यतन प्राकृतों का नितांत अभाव है, दूसरे प्राकृत भाषाओं के अधिकारी विद्वानों की कमी ने इसे बहुत दुरूह और मुश्किल बना रखा है। ऐसे में जैन दम्पती और राय बन्धु का यह छात्रोपयोगी प्रकाशन निस्संदेह स्तुत्य और अभिवंदनीय है ।
खण्ड १७, अंक ३ (अक्टूबर-दिसम्बर, ६१)
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