________________
हैं - मनः पर्यव ज्ञान तो अति विशुद्ध अध्यवसाय वाले को प्राप्त होता है । कृष्ण लेश्या संकलिष्ट अध्यवसाय स्वरूपा है । तब फिर कृष्ण लेश्यी में मनःपर्यव ज्ञान कैसे संभव है ? अपने ही बितर्क का स्वयं समाधान प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं- प्रत्येक लेश्या के असंख्य लोकाकाश प्रदेश-प्रमाण अध्यवसाय स्थान है । उनमें से कोई मन्द अनुभव बाले अध्यवसाय स्थान प्रमत्त संयत में भी प्राप्त हो सकते । इसीलिए प्रमत्त संयत साधुओं में कृष्ण, नील, कापोत, लेश्या भी कही गयी है ।
ज्ञातव्य है कि मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान सद् गृहस्थ श्रावक में भी प्राप्त हो सकते हैं, पर मनः पर्यव ज्ञान तो संयमधारी साधु में ही प्राप्त होता है, अन्य किसी में नहीं । ( नंदी सूत्र, मणपज्जवनाण पदं ) । कुष्ण लेश्यी में भी मन:पर्यय ज्ञान का प्राप्त होना यहां निर्दिष्ट है । मनःपर्यव ज्ञान नियमतः साधु में ही प्राप्त होता है, अन्य किसी में नहीं । इससे संयमधारी साधु में भी कृष्ण लेश्या का होना सर्वथा असंदिग्ध है । इसी प्रकार प्रज्ञापना के सतरवें पद में भी कृष्ण लेश्यी सम्यग्दृष्टि जीवों के तीन भेद बतलाये हैं- संयंती, असंगती और संयतासंयती ।" अगर संयमधारी साधु में कृष्ण लेश्या ही प्राप्त न हो तो कृष्ण लेपयी सम्यग्दृष्टि का संयती भेद क्यों बताया
गया ?
वस्तुतः संयमधारी प्रमत्त साधु में तीन शुभ लेश्याएं ही नहीं, कृष्णादि छहों लेश्याएं प्राप्त हो सकती हैं। इसलिए भगवती सूत्र के प्रथम शतक के प्रथम उद्देशक के जिस पाठ को पुरस्सर कर साधु में सिर्फ तीन शुभ लेश्याओं का होना प्रतिपादित किया जाता है वह यथार्थ में षष्ठम् गुणस्थानवर्ती प्रमत्त संयत में सिर्फ तेजस्, पदम् और शुक्ल ये तीन शुभ भाव लेश्याएं प्राप्त होने की नहीं, कृष्णादि छहों लेश्याएं प्राप्त होने की भी पुष्टि करता है । भगवती सूत्र का वह मूल पाठ इस प्रकार हैं----
"सलेस्सा जहा ओहिया । कण्ह लेसस्स नील लेसस्स काउलेसस्स जहा ओहिया जीवा । नवरं पमत्तापमत्ता न भाणियव्वा ।" ( भगवती शतक - १ उद्देशक - १ ) इसका अर्थ है - सलेशी जीवों का सारा निरूपण औधिक समुच्चय जीवों की तरह होगा । कृष्ण नील एवं कापोत लेश्यी जीवों का निरूपण भी औधिक सर्व सामान्य जीवों की तरह होगा, पर इतना विशेष कि इनमें प्रमत्त अप्रमत्त भेद नहीं करने हैं । उक्त पाठ के आघाय को और अधिक स्पष्टता से समझने के लिए पूरे संदर्भ के साथ भगवती सूत्र का वह प्रकरण यहां दिया जा रहा है
भगवान् महावीर के सम्मुख गौतम अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते हैं कि प्रभो ! जीव आत्मारंभी, परारंभी, उभयारंभी होते हैं या अनारंभी ?" समाधान में भगवान् महावीर ने बताया कि गौतम ! जीव दोनों ही प्रकार के होते हैं— कुछ आत्मारंभी, परारंभी, उभयारंभी होते हैं, अनारंभी नहीं होते । कुछ जीव आत्मारंभी, परारंभी, उभयारंभी नहीं होते अनारंभी होते हैं । गौतम ने फिर जिज्ञासा प्रस्तुत की - प्रभो ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि जीव दोनों ही प्रकार के होते हैं--कुछ अनारंभी होते हैं, कुछ अनारंभी नहीं भी होते ? भगवान् ने बताया- गौतम ? जीव दो प्रकार के हैं(१) संसार - समापन्नक, ( २ ) असंसार समापन्नक । इन दो में जो असंसार समापन्नक
खण्ड १७, अंक ३ ( अक्टूबर-दिसम्बर, ६१ )
१६३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org