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________________ (ऋतुः, रजतम्, आगतः, निवृत्तिः, आवृत्तिः, संवृतिः, सुकृतिः, आकृतिः, हतः, संयतः, विवृतम्, संयातः संप्रति और प्रतिप्रत्तिः ।) सूत्र-६.३२-युष्मद् के षष्ठी एकवचन और तृतीया एकवचन का-'ते'- दे' होता ते धणं; दे धणं; ते क; दे कअं । [३] कृदन्त प्रत्यय और विभक्ति [अ] सूत्र--४.२२ तल्त्वयोत्तिणी [भाववाचक प्रत्यय दा और तण] वीणदा, मूढदा, पीणत्तणं, मूढत्तणं [ब] सर्वनामों में पंचमी ए० व० की विभक्ति सूत्र-६.६-त्तो दो इसेः --कदो, जदो, तदो। सूत्र-६.१०-तद ओश्चः-तत्तो, तदो। सूत्र-६.२०-तो उसे:-एदादो, एदादु । सूत्र-६.३५-ङसौ (तत्तो तइत्तो) तुमादो, सुमादु, (तुमाहि)। अर्थात् पंचमी एकवचन की विभक्ति-तो के बदले में-दो का और भाववाचक प्रत्यय-ता के बदले में-दा का स्पष्ट उल्लेख है। पू० आचार्यश्री हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण के अनुसार त का द शौरसेनी और मागधी भाषा में ही होता है । सामान्य प्राकृत के लिए वररुचि के सूत्र-२.७ का नियम उन्हें स्वीकृत नहीं था इसीलिए उन्होंने उसका निषेध किया (सूत्र ८.१.२०६) है । वे कहते हैं-ऋत्वादिषु द इत्यारब्धवन्तः स तु शौरसेनी-मागधी-विषय एव दृश्यते इति नोच्यते । प्राकृते हि ऋतुः=रिऊ; उऊ; रजतम् = रययं और जितने भी त=द वाले उदाहरण वररुचि के व्याकरण में मिलते हैं वे त का लोप करके उन्होंने दिए उनके सूत्र नं० ८.३.८ में सर्वनामों की पं० ए० व० की विभक्ति में-दो औरदु का भी उल्लेख है (इसेस् त्तोदोदुहिहिन्तो लुक:) परन्तु वृत्ति में कह दिया कि 'दकार-करणं भाषान्तरार्थम्' अर्थात् द कार वाली विभक्ति अन्य भाषाओं में प्रयुक्त होती है। उन्होंने सामान्य प्राकृत में त=द का निषेध किया और अन्य भाषा में ऐसे प्रयोग मिलते हैं वह भी स्पष्ट किया है । फिर भी उन्होंने अपने सूत्रों में त के द वाले प्रयोग क्यों दिए ? उनके बारे में ऐसी ही स्पष्टता क्यों नहीं की? यह स्पष्ट नहीं है । सूत्र नं० ८.१.३७ 'अतो डो विसर्गस्य' के उदाहरण में 'कुत: कुदो' दिया गया है । जबकि त के द का निषेध बहुत बाद में आगे ८.१.२०६ सूत्र की वृत्ति में किया गया है । इसी प्रकार सूत्र नं० ८.२.१६० 'तो दो तसो वा' । प्राकृत भाषा के लिए इस सूत्र की वृत्ति में सव्वदो, एकदो, अन्नदो, कदो, जदो, तदो और इदो के उदाहरण दिए हैं जब कि १५८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524568
Book TitleTulsi Prajna 1991 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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