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आवश्यक सूत्र में सचेलक साघु के लिए चौदह पदार्थ ग्रहणीय बताये हैं-अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपोंच्छन् पीठ फलक, शय्या, संस्तारक, औषधि, भेषज । उत्तराध्ययन* में आहारग्रहण के लिए छ: कारण दिए गए हैं- क्षुधा - शान्ति, २. वैयावृत्य, ३. ईर्यापथ, ४. संयम, ५. प्राणप्रत्यय और ६. धर्म चिन्ता । संखडि ( सामूहिक भोजन ), उद्दिष्ट और सचित आहार वर्जित माना गया है । बौद्धधर्म में ऐसे कोई नियम नहीं हैं । वहां उद्दिष्ट विहार में स्वयं पकाया भोजन भी विहित है । भोजन के बाद अरण्य और पुष्करिणी की उपज अर्थात् कमलनाल और आम्ररस ग्रहणीय माना है । नयातिल, शहद्, गुड़, मूंग, नमकीन, पंचगोरस, त्रिकोटिपरिशुद्ध मांस, यवागू और लड्डू भी भक्ष्य माने गए हैं । पाथेय में तंडुल, मूंग, उड़द, नमक, गुड़, तेल और घी लिया जा सकता है। फलों का रस विकालभोजन में नहीं गिना जाता । २५
जैनाचार इसकी तुलना में अधिक नियमबद्ध और कठोर हैं । वहां आहार के ४६ दोषों का वर्णन है जिनसे साधु को निर्मुक्त रहना आवश्यक है - १६ उद्गम दोष, १६ गवेषणा दोष ( उत्पादन दोष), १० ग्रहणैषणा दोष ( अनशन दोष), और ४ संयोजनादि ग्रासैषणा दोष । ९ १६ उद्गम दोष – १. आधाकर्म २. औद्देशिक अथवा अवधि, ३. मिश्र, ४. स्थापित, ५. बलि ६. पूति, ७ प्राभृत, ८ प्रादुष्कार ( संक्रमण व प्रकाशन ) ६. क्रीत १०. प्राभृष्व (सवृद्धिक और अवृद्धिक), ११. परिवर्त, १२. अभिघट, १३. उद्भिन्न, १४. मालारोहण, १५. आछेद्य, १६ अनिसृष्ट । इसी प्रकार अन्यदोष भी द्रष्टव्य हैं । पिण्डनिर्युक्ति में ग्रासैषणा में अकारणदोष मिलाकर ४७आहार दोषों का उल्लेख मिलता है । अट्ठावीस मूलगुणों के अन्तर्गत दिगम्बर- परम्परा में स्थितिभोजन और एकभक्त व्रत का पालन भी मुनि करता है ।" पंक्तिबद्ध सात घरों से लाया भोजन करणीय है ।" भोजन में कोई आसक्ति न हो, आहार सादा हो, दातार पर उसका कोई बोझ न हो, भ्रामरीवृत्ति हो ।" बौद्धधर्म में इस प्रकार के विशेष प्रतिबन्ध नहीं हैं ।
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जैनधर्म में बावीस परीषहों का वर्णन मिलता है जिन्हें श्रमण श्रमणी सहन करते हैं ।" इनके सहन करने से कर्म निर्जरा होती है । बौद्धधर्म मध्यममार्गी होने के कारण तप की उतनी कठोर साधना का निर्धारण तो नहीं कर सका । परन्तु यह कठोरता आंशिक रूप में उपलब्ध होती ही है । मज्झिमनिकाय के सब्बासव सुत्तन्त में आश्रवों का क्षय सात प्रकार से बताया है – १. दर्शन (विचार), २. संवर, ३. प्रतिसेवन, ४. अधिवासन ( स्वीकार ), ५. परिवर्जन, ६. विनोदन (विनिर्मुक्ति - हटाना ) और ७. भावना । इन प्रसंगों में क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमसक आदि बाधाओं की चर्चा की गयी है पर
हां यह बताया है कि भिक्षु को भोजन, पानी, वस्त्र आदि उसी परिमाण में ग्रहण करना चाहिए जिससे वह इन बाधाओं से मुक्त हो सके। इसी प्रकार सुत्तनिपात के सारिपुत्तसुत्त में भिक्षुचर्या का वर्णन करते समय इस प्रकार की बाधाओं को सहन करने का उपदेश दिया गया है | वहां उन्हें परिस्य ( परीषह ) भी कहा गया है । २
जैन परीयों की तुलना बौद्ध धुतांगों से की जा सकती हैं । धुतांग का तात्पर्य है -क्लेशावरण को दूर करने की ओर ले जाने वाला मार्ग ( किलेस धुननतो वा धुतं ) ।
खण्ड १७, अंक ३ (अक्टूबर-दिसम्बर, ९१ )
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