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________________ जातरूपरजतपटिग्गहण से दूर रहना ।" ज्ञप्तिचतुर्थकम का भी प्रारंभ हुआ।" उवट्ठवणा और उपसंपदा में थोड़ा अर्थ-भेद है। जैनधर्म में उपसंपदा को समाचारी (सम्यक्चर्या या आचरण) के दस भेदों में अन्तिम भेद के रूप में सम्मिलित किया गया है । ज्ञानादि की प्राप्ति के लिए साधक जब किसी अन्य गण-गच्छ के विशिष्ट गुरु के समीप जाता है तब उसकी इस गमन क्रिया को उपसंपदा कहा जाता है। यहां उपाध्याय को आचार्य से बड़ा माना गया है। बौद्धधर्म में उपसंपदा का प्रयोग इस अर्थ में नहीं हुआ है । वहां उपसंपदा भिक्षुत्व की दृढ़ता का प्रतीक है । जैनाचार में दस प्रकार का कल्प (आचार) बताया है ।" उसमें सचेल-अचेल, दोनों परम्पराएं हैं। दिगम्बर-परम्परा में क्षुल्लक दो लंगोटी और दो न्यूनप्रमाण काषाय चादर तथा एलक मात्र लंगोटी रखते हैं । वहां मुनि को किसी भी प्रकार के वस्त्र रखने का प्रश्न ही नहीं उठता । पाणिपात्री होने के कारण पात्रों की आवश्यकता नहीं पड़ती। हां, कमण्डलु और पिच्छिका अवश्य साथ में रखते हैं । श्वेताम्बर श्रमण मुखवस्त्रिका. रजोहरण और एक-दो अथवा तीन चादर रखते हैं । इस विषय में सम्प्रदायगत मतभेद भी है। ___ बौद्धधर्म में मूलतः चार प्रकार का निश्रय मिलता है ---१. भिक्षामांगना, और पुरुषार्थ करना । इसमें संघभोज, उद्दिष्टभोजन, निमंत्रण, शलाका भोजन, पाक्षिक भोजन आदि भी विहित है। २. श्मशान आदि मे पड़े चिथड़ों से चीवर तैयार करना । इस में क्षौम, कापासिक, कौशेय, कम्बल, सन और भंग का वस्त्र भी विधेय है । तीन चीवरों का विधान है।" उत्तरासंग, अन्तर्वासक एवं संघाटी । उपासकों से ग्रहण करने के लिए भिक्षुओं को चीवर प्रतिग्राहक, चीवर निधायक, चीवरभाजक जैसे पदों पर नियुक्त किया जाता था। इन प्राप्त चीवरों को रखने के लिए एक भाण्डागारिक होता था। इन चीवरों को काटने, सीने और रंगने का भी विधान है । आसनों के लिए प्रत्यस्तरण, रोगियों के लिए कौपीन, वार्षिक साटिका, मुंह पोंछने के लिए अंगोछा एवं थैला आदि रखा जाता था। रुग्णावस्था में जूते पहिनने का भी विधान है। पर आरोग्यावस्था में बिहार में भी जूता पहिनना निषिद्ध था। साधारणतः चमड़े का उपयोग वजित था ।२ __ जैन भिक्षुओं में यह सब बिलकुल निषिद्ध है । नव दीक्षित साधु के लिए रजोहरण गोच्छक प्रतिग्रह अर्थात् पात्र एवं तीन वस्त्र तथा साध्वी के लिए चार पूरे वस्त्रों को ग्रहण करने का विधान है। साधु के लिए अवग्रहानन्तक अर्थात् गुह्यदेशपिधानक रूप कच्छा एवं अवग्रहपट्टक अर्थात् गुह्यदेशाच्छादक रूप पट्टा रखना वर्ण्य है । साध्वी इनका उपयोग कर सकती है । बृहत्कल्प में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के लिए पांच प्रकार के वस्त्रों का उपयोग विहित माना गया है—जांगिक, भांगिक, सानक,पोतक और तिरीडपट्ट । रजोहरण के लिए दिगम्बर साधु मयूरपंख का उपयोग करते हैं और श्वेताम्बर परंपरा में ओणिक, औष्टिक, सानक, वच्चकचिप्पक और मुंजचिप्पक धागों को कल्प्य बताया है। निर्दोष वस्त्र की कामना, याचना और ग्रहण अनुमत है पर उनका धोना और रंगना निषिद्ध है। इसी प्रकार सादे अलाबू, काष्ठ व मिट्टी के पात्र रखना कल्प्य है पर धातु के पात्र रखना वर्जित है । वृद्ध साधु भाण्ड और मात्रिका भी रख सकता है। १२२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524568
Book TitleTulsi Prajna 1991 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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