SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिसके कारण वह राजकुमारी से दासी बनी एवं दासी से पुनः राजकुमारी । १४ भारतीय साहित्य में शाप की एक महत्त्वपूर्ण परम्परा रही है । शाप देने वाला कोई विशेष व्यक्ति होता है, और कारण विशेष से ही शाप देता है । अभिज्ञानशाकुन्तलम् में प्रियतम दुष्यन्त की मधुर स्मृतियों में खोई शकुन्तला दुर्वासा के आगमन सूचक शब्द नहीं सुन पाई अतः क्रुध अतिथि का शाप गूंज उठा - "अरी ओ अतिथि का अपमान करने वाली ! जिसके ध्यान में इतनी मग्न होकर तू मुझ जैसे तपस्वी के आने की भी सुध नहीं ले रही है, वह बहुत स्मरण दिलाने पर तुझे उसी प्रकार भूल जायेगा, जैसे पागल मनुष्य अपनी पिछली बातें भूल जाता है ।" " संभवतः कालिदास स्वयं भी लोक विश्वासों से न्यूनाधिक रूपेण प्रभावित रहे होंगे और इन विश्वासों का सफल साभिप्राय प्रयोग उन्होंने अपनी कृतियों में यथावसर किया है । अभिज्ञानशाकुन्तलम् में दुर्वासा - ‍ -शाप की वर्णना के प्रसंग में "पुष्पभाजन" का स्खलित होना कुछ इस अपरिहार्यता से किया है जो शकुन्तला के भावी जीवन में आगामी विडम्बनाओं का प्रतीकात्मक आभास कराता है । उस पुष्प मात्र के माध्यम से, जिसकी संयोजना सखियों के माध्यम से शकुन्तला के सौभाग्यदेव की अर्चना हेतु की गई है, परन्तु जो अपने प्रयोजन में प्रवृत्त होने से पूर्व ही ठोकर लगने से हाथ से छूट जाता है । कालिदास-कालीन समाज में सिद्ध पुरुषों की भविष्यवाणियों में जन-सामान्य का विश्वास था । ऐसा विश्वास आज भी लोगों में पाया जाता है । मालविका के पिता के जीवन काल में देव यात्रा के प्रसंग में आये किसी सिद्धादेश साधु ने यह भविष्यवाणी की थी कि मालविका एक वर्ष तक दासीत्व का अनुभव कर अपने सदृश पति को प्राप्त करेगी । १६ आकाशवाणी में भी लोगों का विश्वास था । अभिज्ञानशाकुन्तलम् के चतुर्थ अंक में ऋषि कण्व को आकाशवाणी से ही शकुन्तला के दुष्यन्त से विवाह की सूचना प्राप्त होती है । ७ जन-सामान्य की धर्म में आस्था थी । देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ किये जाते एवं प्रसाद चढ़ाया जाता था । व्रत-उपवास रखे जाते एवं उनका पारणा" किया जाता था । १६ समाज में भूतप्रेत, पिशाच " आदि में लोग बहुत विश्वास करते थे । इन प्रेतात्मा जीवों का रूप दृष्टिगोचर नहीं होता था । अभिज्ञानशाकुन्तलम् में प्रतिहारी राजा से कहता है कि अदृष्ट रूपवाले किसी प्राणी ने माणवक को मेघ प्रतिच्छन्द नामक प्रासाद के अग्रभाग में रख दिया है । तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, शाप और देवी- विद्याओं जैसे अलोकिक तत्त्वों में भी जन-सामान्य का विश्वास था । मंत्रों में दैवीशक्ति मानी जाती थी । मंत्र-बल से व्यक्तियों के स्वेच्छानुसार अदृश्य और दृश्य हो जाने और सब कुछ जान लेने के उल्लेख भी मिलते हैं । २२ सांसारिक आधि-व्याधि के निराकरण के लिए, रक्षासूत्र एवं रक्षा करण्डक पहनने की प्रथा थी । अभिज्ञानशाकुन्तलम् में भरत के हाथ में अपराजिता नामक जड़ी-बूटी का ताबीज बांधा गया था । * खण्ड १६ अंक १ ( जून, ६० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only ४३ www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy