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________________ ग्रह का एक अर्थ है। साधना पक्ष-अपरिग्रह यानी आत्मनिष्ठा। परिग्रह का विश्वास पदार्थ में है, अपरिग्रह का स्वयं में । अपरिग्रह का मूलभूत संबंध संग्रह से नहीं, संग्रह की वृत्ति से है। जो उसका संबंध संग्रह से ही मान लेता है वह संग्रह के त्याग में ही अपरिग्रह की उपलब्धि देखता है, जबकि संग्रह का महत्त्वपूर्ण दबावपूर्वक त्याग की वस्तुओं में ही विश्वास है । वह परिवर्तन ऊपरी है। व्यक्ति का अन्तस्थल उससे अधूरा ही रह जाता है। इसलिए संग्रह नहीं, संग्रह की मनोकामना विचारणीय है। स्वयं की आंतरिक रिक्तता और खालीपन को भरने के लिए ही व्यक्ति संग्रह की आड़ में भाग लेता है। रिक्तता से भय पैदा होता है और उसे किसी भी भांति धन, यश, बल, सत्ता पुण्य तथा ज्ञान से भर लेने में अपने आपको सुरक्षित मानने लगता है । वास्तव में संग्रह की शक्ति ही असत्य है । क्योंकि वह शक्ति स्वयं की नहीं है । शक्ति तो वही सत्य है जो कि स्वयं की हो। आंतरिक अपरिग्रह के बिना बाह्य परिग्रह का त्याग ज्यादा लाभकारी नहीं होता। वह अहं पुष्टि का निमित्त बनकर दूसरा रूप धारण कर लेता है। इसलिए विचारों व वृत्ति के स्तर पर जो अपरिग्रह साध लेता है वह समाधि को उपलब्ध हो जाता है। परिग्रह की वृत्ति परमात्मा, स्वर्ग, मोक्ष जाने के लिए सहज ही छोड़ी जा सकती है। लेकिन वह वास्तविक अपरिग्रह नहीं है। जहां कुछ भी पाने की चाह है, चाहे वह मोक्ष भी क्यों न हो, वहां परिग्रह है, आसक्ति है। यह रागरूप लोभ का अन्तहीन रूपान्तर है। वास्तविक अपरिग्रह तो तभी प्रतीत होता है जब भीतर की चाह समाप्त हो जाए 'मोटी माया सब तजी, झीनी तजी न जाए। पीर, पैगम्बर, ओलिया, झीनी सबको खाय ॥' जिस दिन चाह समाप्त हुई उसी क्षण मोक्ष का साक्षात् अनुभव हुआ। अर्थात् साररूप में परिग्रह का अर्थ है बंधनमुक्ति । व्यवहार पक्ष-इस अनुच्छेद में अपरिग्रह दर्शन का साधना की दृष्टि से विवेचन किया गया है । यह भी प्रत्येक व्यक्ति का चरम लक्ष्य होता है। . आचार्य श्री तुलसी द्वारा प्रवर्तित अणुव्रत आचार संहिता सर्वोपयोगी है। उसी प्रकार संघ महावीर ने गृहस्थ जीवन को शांतिपूर्ण बनाने के लिए परिग्रह परिणाम व्रत की प्ररूपणा की। उन्होंने धीरे-धीरे अपरिग्रह सिद्धांत को जीवनगत बनाने की प्रक्रिया बताई इसलिए आयारो में एक सूत्र दिया गया -- . 'लोभं अलोभेण दुगंछमाणे, लद्ध कामे नाभिगाहइ ।' ज्यों-ज्यों अलोकात्मक से लोकात्मक वृत्ति उपशांत होती है त्यों-त्यों प्राप्त कामभोग रूप परिग्रह भी नीरस लगने लगता है। वह उनसे उपरत होता हुआ पदार्थोयुक्त परिग्रह चेतना से पदार्थ युक्त अपरिग्रह चेतना में उपस्थित हो जाता है। यह सूत्र सबके लिए मननीय है, तभी आयारो में अपरिग्रह के स्वीकारण की बात तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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