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________________ प्राकृतिक संपदा का अन्धाधुंध दोहन किया जाता है, जिससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ जाता है । उसका यही चितन रहता है कि मैं पिऊं, मेरा बैल पिए, फिर चाहे कुआं दह पड़े । इसलिए वह प्रकृति के साथ भी खिलवाड़ करने से बाज नहीं आता । आज वनों की कटाई, जानवरों की जाति प्रजातियों का नष्ट होना, वायु, जल, वायु प्रदूषण जैसे अमानवीय कृत्य प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ने में सबसे ज्यादा अहम भूमिका अदा करते हैं । परिणामतः मनुष्य का रह पाना भी मुश्किल व खतरे से खाली नहीं है । मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण संग्रह की मनोवृत्ति संघर्ष को जन्म देती है । संग्रह की मूल प्रेरणा है--इच्छा । इस पूर्ति में व्यक्ति दिन-रात एक कर देता है और चिंताग्रस्त रहता है । मानसिक बीमारियों का शिकार हो जाता है । आजकल तो बड़ी-बड़ी उद्योगशालाओं, कार्यालयों में मनोचिकित्सक रखे जाते हैं। हर अस्पताल में मानसिक इलाज की व्यवस्था रहती है । सारा परिग्रह की बढोतरी का कुपरिणाम है । आधुनिक अनुसंधानों के अनुसार वर्तमान में हर बीमारी का ७० प्रतिशत मानसिक कारण होता है । इसलिए प्रायः बीमारी के आगे मनोवैज्ञानिक शब्द जोड़ा जाता है क्योंकि व्यक्ति मानसिक तनाव, चिंता, विषाद आदि मनोवृत्तियों से घिरा रहता है । भगवान् महावीर बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक थे । उन्होंने अनुभव के स्तर पर सारगर्भित सत्य का अनावरण किया 'अहो य राओ य परितप्यमाणे संक्षेप में परिग्रह स्वभाव से ही रहित विरोधी तत्त्व रहा है इसलिए वर्तमान की मुख्य तथा गौण सभी समस्याओं, श्रमहीनता, बेरोजगारी, गरीबी, शोषण, आतंक, भ्रष्टाचार, साम्राज्यवादी मनोवृत्ति, हिंसक व्यवहार, युद्ध संभावना इत्यादि का मूलभूत कारण परिग्रह ही बनता है । अतः परिग्रह को समझना जरूरी है । इस प्रकार परिग्रह के स्वरूप विश्लेषण से अपरिग्रह सिद्धांत स्पष्ट होने पर भी अपरिग्रह सिद्धांत की दार्शनिक व्याख्या इस पत्र का मूल उद्देश्य है । अपरिग्रह दर्शन --- भगवान् महावीर ने विश्व के सामने तीन मौलिक चिंतन प्रस्तुत किए। उसमें एक नई सोच थी। वह है अपरिग्रह का दर्शन । आज अहिंसा पर जोरशोर से सभा-सम्मेलनों का आयोजन, संस्थात्मक शोधपरक कार्य चल रहा है। लेकिन जब तक अपरिग्रह - दर्शन जीवनव्यापी नहीं बनेगा तब तक वार्तमानिक समस्याओं को विराम नहीं दिया जा सकता है । अतः आधुनिक वैषम्यपूर्ण वातावरण में समाधानकारक अपरिग्रह सिद्धांत को समझना युग की अनिवार्यतम आवश्यकता महसूस होती है । अपरिग्रह का अर्थ है -- स्वस्थ होना । अपने "स्व" में स्व-अवस्थित होना । परिग्रह IT अर्थ है अस्वस्थ होना । अम्व है, हमारा स्व नहीं है । स्व के बाहर का वस्तु जगत है इसमें अवस्थित हो गया ।" हम वस्तु नहीं, वस्तु हम नहीं । फिर भी हम वस्तुस्थ होते हैं, स्वस्थ नहीं । वस्तु स्वस्थ है, अपने में स्थित है, इसलिए वह न अपरिग्रही होती है न परिग्रही । परिग्रह का अर्थ है-पकड़ । पकड़ हमारी है, वस्तुओं के प्रति हमारे ही भीतर । यह जो पकड़ है इसका न वस्तु जगत् में लाभ न अन्तर्जगत् में । अत अपरि खण्ड १६, मंक १ (जून, ९० ) Jain Education International ' For Private & Personal Use Only २६: www.jainelibrary.org
SR No.524562
Book TitleTulsi Prajna 1990 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size4 MB
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